श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी61. प्रेमोन्मत्त अवधूत का पादोदकपान
जिन्हें भगवत-भक्ति की प्राप्ति हो गयी है, जो प्रभु-प्रेम में मतवाले बन गये हैं, उनके सभी कर्म लोक-बाह्य हो जाते हैं। जो क्रिया किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये की जाती है, उसे कर्म कहते हैं, किंतु वैसे ही निरुद्देश्यरूप से केवल करने के ही निमित्त जो चेष्टाएँ या क्रियाएँ होती हैं, उन्हें लीला कहते हैं। बालकों की सभी चेष्टाएँ ऐसी ही होती हैं, उनमें कोई इन्द्रिय-जन्य सुख-स्वार्थ या कोई उद्देश्य नहीं होता। वे तो वैसे ही निरुद्देश्य भाव से होती हैं। भक्तों की सभी चेष्टाएं इसी प्रकार की होती हैं, इसीलिये उन्हें कर्म न कहकर लीला ही कहने की प्राचीन परिपाटी चली आयी है। भक्तों की लीलाएं प्राय: बालको की लीलाओं से बहुत ही अधिक मिलती-जुलती हैं। जहाँ लोक-लज्जा का भय है, जहाँ किसी वस्तु के प्रति आश्लीलता के कारण घृणा के भाव हैं और जहाँ दूसरों से भय की सम्भावना है, वहाँ असली प्रेम नहीं। बिना असली प्रेम के विशुद्ध लीला हो ही नहीं सकती। अत: लज्जा, घृणा और भय-ये स्वार्थजन्य मोह के द्योतक भाव हैं। भक्तों में तथा बालकों में ये तीनों भाव नहीं होते तभी उनका हृदय विशुद्ध कहा जाता है। प्रेम में उन्मत्त हुआ भक्त कभी तो हंसता है, कभी रोता है, कभी गाता है और कभी संसार की लोक-लाज छोड़कर दिगम्बरवेश से ताण्डवनृत्य करने लगता है। उसका चलना विचित्र है, वह विलक्षण-भाव से हंसता है, उसकी चेष्टा में उन्माद है, उसके भाषण में निरर्थकता है और उसकी भाषा संसारीभाषा से भिन्न ही है। वह बालकों की भाँति सबसे प्रेम करता है, उसे किसी से भय नहीं, किसी बात की लज्जा नहीं नंगा रहे तो भी वैसा और वस्त्र पहने रहे तो भी वैसा ही। उसे बाह्य वस्त्रों की कुछ अपेक्षा नहीं, वह संसार के विधि-निषेध का गुलाम नहीं। अवधूत नित्यानंद जी की भी यही दशा थी। बत्तीस वर्ष की अवस्था होने पर भी वे सदा बाल्यभाव में ही रहते। मालती देवी के सूखे स्तनों को मुंह में लेकर बच्चों की भाँति चूसते, अपने हाथ से दाल-भात नहीं खाते, तनिक-तनिक-सी बातों पर नाराज हो जाते और उसी क्षण बालाकें की भाँति हंसने लगते। श्रीवास को पिता कहकर पुकारते और उनसे बच्चों की भाँति हठ करते। गौरांग इन्हें बार-बार समझाते; किंतु ये किसी की एक भी नहीं सुनते। सदा प्रेम-वारूणी पान करके उसी के मद में मत्त-से बने रहते। शरीर का होश नहीं, वस्त्र गिर गया है, उसे उठाने तक की भी सुध नहीं है। नंगे हो गये हैं तो नंगे ही बाजार में धूम रहे है। खेल कर रहे है तो घंटों तक उसी में लगे हुए हैं। कभी बालकों के साथ खेलते, कभी भक्तों के साथ क्रीड़ा करते, कभी-कभी गौर को भी अपने बाल-कौतूहल से सुखी बनाते। कभी मालतीदेवी को ही वात्सल्य सुख पहुँचाते, इस प्रकार ये सभी को अपनी सरलता निष्कपटता, सहृदयता और बाल-चपलता से सदा आनन्दित बनाते रहते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उन प्रभु के प्यारे भक्तों का जीवन कैसा होता है? वे आयु को कैसे बिताते हैं उसी का वर्णन है- ‘प्रभु के प्यारे भक्त अपनी वाणी से निरंतर सुमधुर हरि नाम का उच्चारण करते रहते हैं अथवा स्तोत्रों से बांकेविहारी की विरूदावली गाते रहते हैं, मन से उस मुरली-मनोहर के सुदंर रूप का चिंतन करते रहते हैं और शरीर से उनके लिये सदा दण्ड-प्रणाम करते रहते हैं। वे सदा विकल-से, पागल-से, अधीर-से, तथा अतृप्त-से ही बने रहते हैं। उनके नेत्रों से सदा जल टपकता रहता है, इस प्रकार वे अपनी सम्पूर्ण आयु को श्रीहरि भगवान के ही निमित्त समर्पण कर देते हैं। (अहा, वे भगवत-भक्त धन्य हैं) हरि. भ. सु. 18/38