श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी101. दक्षिण यात्रा के प्रस्थान
कथं ममाभून्न हि पुत्रशोक: प्रभु ने दक्षिण-यात्रा का निश्चय कर लिया है और इस निश्चय में किसी प्रकार का उलट-फेर न होगा, इसी बात को सोचते हुए भक्तवृन्द प्रभु के साथ-साथ सार्वभौम के गृह पर पहुँचे। भक्तों के सहित प्रभु को आते देखकर जल्दी से उठकर भट्टाचार्य ने प्रभु की चरणवन्दना की, सभी भक्तों को प्रेमाभिवादन किया और सभी के बैठने के लिये यथायोग्य आसन देकर धूप, दीप, नैवेद्यादि पूजन की सामग्री से उन्होंने प्रभु की पूजा की। कुछ समय तक तो भगवत-सम्बन्धी कथा-वार्ता होती रही। अन्त में प्रभु ने कहा- ‘भट्टाचार्य महाशय! मेरे ये धर्मबन्धु मुझे शांतिपुर से यहाँ तक ले आये और इन्हीं की कृपा से मुझे पुरुषोत्तमभगवान के दर्शन हुए। सुनते हैं तीर्थों का फल कहीं कालान्तर में मिलता है, किन्तु मुझे तो जगन्नाथ जी के दर्शनों का फल दर्शन करते ही प्राप्त हो गया। आज-जैसे महानुभावों से प्रेम होना कोटि तीर्थों के फलस्वरुप ही है। आपसे साक्षात्कार होना मैं भगवान पुरुषोत्तम के दर्शनों का ही महाफल समझता हूँ। आपके सत्संग से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मेरा इतना समय खूब आनन्दपूर्वक व्यतीत हुआ। सम्भवतया आपको पता होगा कि मेरे एक ज्येष्ठ भ्राता विश्वररूप 16 वर्ष की ही अवस्था में गृह त्यागकर संन्यासी हो गये थे। ऐसा सुना जाता है कि वे दक्षिण की ओर गये थे। मेरी इच्छा है कि मैं भी उनके चरण-चिह्नों का अनुसरण करके दक्षिण-देश की यात्रा करूँ। इससे एक पन्थ दो काज होंगे। इसी बहाने से दक्षिण के सभी तीर्थों के दर्शन हो जायँगे और सम्भवतया विश्वरूप जी से किसी-न-किसी तीर्थ में भेंट हो जायगी। अब आप मुझे दक्षिण जाने की अनुमति प्रदान कीजिये।’ इनता सुनते ही भट्टाचार्य सार्वभौम तो मर्माहत होकर कटे वृक्ष की भाँति बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़े। उनकी दोनों आँखों से अश्रु बहने लगे। कुछ क्षण के पश्चात संभलकर वे बड़े ही करुणस्वर में कहने लगे- ‘प्रभो ! मैं समझता था कि मेरा सौभाग्य सूर्य अब उदय हो गया। अब मैं बड़भागी बन चुका। अब मुझे प्रभु की संगति का निरन्तर प्राप्त होता रहेगा, किंतु हृदय को बेधने वाली इस विचित्र बात को सुनकर तो मेरे दु:ख का पारावर नहीं रहा। अत्यन्त दरिद्रावस्था से जिस प्रकार कोई राजा बन गया हो और थोड़े ही दिनों में उसे राज्यसिंहासन से गिराकर फिर दीन-हीन कंगाल बना दिया जाय। ठीक वही दशा आज मेरी हो गयी है! प्रभो ! आप मुझे छोड़कर कहीं अन्यत्र न जायँ। यदि कहीं जाना ही हो तो मुझे भी साथ लेते चलें! मैं आपके पीछे अपने कुटुम्ब, परिवार तथा पद-प्रतिष्ठा सभी को छोड़ने के लिये तैयार हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रभु के वियोग-दु: ख को स्मरण सार्वभौम भट्टाचार्य कह रहे हैं- हाय! प्रभु के विछोह के बदले मुझे पुत्रशोक प्राप्त क्यों नहीं हुआ ? मेरा यह शरीर नष्ट क्यों नहीं हो गया? प्रभु के युगल पादपद्मों का दर्शन करके अब इनके वियोगजन्य दु:ख को सहन करने की शक्ति नहीं है। चै. चरि.