श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी62. घर-घर में हरिनाम का प्रचार
सत्ययुग में प्राय: सभी धर्मात्मा पुरुष होते थे। धर्म के कारण ठीक समय पर वर्षा होती थी, योगक्षेम की किसी को भी चिंता नहीं होती थी। देश, काल तथा खाद्य पदार्थों में पूर्णरूप से विशुद्धता विराजमान थी। उस समय के लोग ध्यान-प्रधान होते थे। सत्ययुग में प्रभुप्राप्ति का मुख्य साधन ध्यान ही समझा जाता था। त्रेतायुग में भोग-सामग्रियों की प्रचुरता थी, इसलिये खूब द्रव्य लगाकर उस समय बड़े-बड़े यज्ञ-याग करने की ही प्रथा थी। उस समय भगवत-प्राप्ति का मुख्य साधन यज्ञ करना ही समझा जाता था। सकाम तथा निष्काम दोनों ही भावों के द्विजातिगण यथाशक्ति, यज्ञ-याग करते थे। द्वापर में भोग-सामग्रियों की न्यूनता हो गयी, लोगों के भाव उतने विशुद्ध नहीं रहे। देश, काल तथा खाद्य पदार्थों की सामग्रियों में भी पवित्रता का संदेह होने लगा, इसलिये उस समय का प्रधान साधन भगवत-पूजन तथा आचार-विचार ही माना गया। कलियुग में न तो पर्याप्तरूप से सबके लिये भोग-सामग्री ही है और न अन्य युगों की भाँति खाद्य पदार्थों की प्रचुरता ही। पवित्र स्थान बुरे लोगों के निवास से दूषित हो गये, धर्मस्थान कलह के घर बन गये, लोगों के हृदयों में से धर्म के प्रति आस्था जाती रही। लोगों के अधर्मभाव से वायुमण्डल दूषित बन गया। वायुमण्डल के दूषित हो जाने से देशों में से पवित्रता चली गयी; काल विपरीत हो गया। सत्पुरुष, सत्शास्त्र तथा सत्संग का सर्वत्र अभाव-सा ही हो गया। ऐसे घोर समय में भलीभाँति ध्यान, यज्ञ-याग तथा पूजा-पाठ का होना भी सबके लिये कठिन हो गया है। इस युग में तो एक भगवन्नाम ही मुख्य है।[2] उक्त धार्मिक कृत्यों को जो लोग पवित्रता और सन्निष्ठा के साथ कर सकें वे भले ही करें, किंतु सर्वसाधारण के लिये सुलभ, सरल और सर्वश्रेष्ठ साधन भगवन्नाम ही है। भगवन्नाम की ही शरण लेकर कलिकाल में मनुष्य सुगमता के साथ भगवत-प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये कलियुग के सभी महात्माओं ने नाम के ऊपर बहुत जोर दिया है। महाप्रभु तो नामावतार ही थे। अब तक वे भक्तों के ही साथ एकांत भाव से श्रीवास के घर संकीर्तन करते थे, अब उन्होंने सभी प्राणियोंको हरिनाम-वितरण करने का निश्चय किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कलियुग में हरिनाम, हाँ, केवल हरिनाम, अजी, यह बिलकुल ठीक है; एकमात्र हरिनाम ही संसार-सागर से पार होने का सर्वोत्तम साधन है। इसके सिवा कलिकाल में दूसरी कोई गति नहीं है; नहीं है; अजी, प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, दूसरी कोई गति है ही नहीं। बृह्न्नारदीय पु. 38/126
- ↑ कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:। द्वापर परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ।। श्रीमद्भा. 12/3/52