श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी90. महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
छत्रभोग में उस रात्रि को बिताकर प्रभु प्रात:काल अपने नित्यकर्म से निवृत हुए। उसी समय रामचन्द्र खाँ ने समाचार भेजा कि प्रभु को पार करने के लिये घाट पर नाव तैयार हैं। इस समाचार को पाते ही प्रभु अपने साथियों के सहित नाव पर जाकर बैठ गये। मल्लाहों ने नाव खोल दी, महाप्रभु आनन्द के सहित हरिध्वनि करने लगे। भक्तों ने भी प्रभु की ध्वनि में अपनी ध्वनि मिलायी। उस गगनभेदी ध्वनि की प्रतिध्वनि जल में सुनायी देने लगी। दसों दिशाओं में से वही ध्वनि सुनायी देने लगी। तब प्रभु ने मुकुन्द दत्त से संकीर्तन का पद गाने के लिये कहा। मुकुन्द अपने मीठे स्वर से गाने लगे- अन्य भक्त भी मुकुन्द की ताल में ताल मिलाकर इसी पद का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु आवेश में आकर नाव में ही खड़े होकर नृत्य करने लगे। नौका नृत्य के वेग को न सह सकने के कारण डगमग-डगमग करने लगी। सभी मल्लाह घबड़ाने लगे कि हमारी नाव इस प्रकार के नृत्य से तो डूब जायगी। उन्होंने कहा-‘सन्यासी बाबा ! हमारे ऊपर दया करो, उस पार पहुँचकर जी चाहे जितना नृत्य कर लेना। हमारी नाव को पार भी लगने दोगे या बीच में ही डुबा दोगे?’ इस प्रकार मल्लाह कुछ क्षोभ के साथ दीन वचनों में प्रार्थना कर रहे थे, किन्तु महाप्रभु किसकी सुनने वाले थे। वे उनकी बातों को अनसुनी करके निरन्तर श्रीकृष्ण–कीर्तन करते ही रहे। तब तो नाविकों को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि यह सन्यांसी हमारी बात तक नहीं सुनता और उसी प्रकार प्रेम में विह्वल होकर नृत्य कर रहा है। उन्होंने कुछ भय दिखाते हुए विवशता और कातरता के स्वर में कहा- ‘महाराज ! आप हमारी बात को मान जाइये। नाव में इस प्रकार उछल-उछलकर नृत्य करना ठीक नहीं है। आप देखते नहीं, उस पार घोर जंगल है, उसमें बड़े-बड़े खूंखार भेड़िये तथा जंगली सूअर रहते हैं। आपकी आवाज को सुनकर वे दौड़े आवेंगे, जल के भीतर मगर और घडियाल हैं, नदी में चारों ओर नावों पर चढ़कर डाकू चक्कर लगाते रहते हैं, वे जिसे भी पार होते देखते हैं, उसे ही लूट लेते हैं। कृपा करके आप बैठ जाइये और अपने साथ हमें भी विपत्ति के गाल में न डालिये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चाहे तू पाताल में चला जा, चाहे स्वर्ग में जाकर निवास कर, चाहे सुमेरु के शिखर पर चढ़कर वहाँ बैठ जा अथवा समुन्द्र से पार होकर किसी अपरिचित देश में चला जा। यह सब करने पर भी तेरी आशा शान्त न होगी। यदि तू सचमूच अपना कल्याण चाहता है, यदि वास्तव में तेरी आधि-व्याधि और जरा-मृत्यु के भय से बचने की इच्छा है, तो ‘श्रीकृष्णरुपी’ रसायन का सेवन कर। उसी से तेरे सम्पूर्ण रोग दूर हो जायँगे। अन्य व्यर्थ के उपायों से लगे रहने से क्या लाभ?