श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी127. प्रभु के वृन्दावन जाने से भक्तों को विरह
सज्जनसंगो मा भूद् यदि संगो मास्तु तत्पुनः स्नेहः। दक्षिण की यात्रा समाप्त करने के अनन्तर महाप्रभु के नीलाचल में रहते हुए चार वर्ष हो गये। वृन्दावन जाने के लिये प्रभु प्रतिवर्ष सोचते थे, किन्तु रथयात्रा के पश्चात् भक्त कहते चातुर्मास में यात्रा निषेध है, वे कार्तिक आने पर दिवाली करके जाने को कहते। फिर जाड़ा आ जाता, जाड़ा समाप्त होने पर कहते, बड़ी गर्मी है, पश्चिम में तो और भी अधिक है अब कहाँ जाइयेगा। इस प्रकार आजकल करते-करते ही चार वर्ष व्यतीत हो गये। महाप्रभु राय रामानन्द जी तथा सार्वभौम भट्टाचार्य आदि भक्तों के प्रेम-पाश में इस प्रकार जकड़कर बंधे हुए थे कि वे स्वेच्छा से जाने में समर्थ होने पर भी इन लोगों की सम्मति लिये बिना जाना नहीं चाहते थे। भक्तों ने जब देखा कि अब की बार प्रभु वृन्दावन जाने के लिये तुले ही हुए हैं, तो उन्होंने विवशतापूर्वक अपनी स्वीकृति दे दी। अबके गौड़ीय भक्त रथयात्रा करके ही लौट गये थे, सदा की भाँति उन्होंने चातुर्मास पुरी में नहीं किया था। प्रभु ने उनसे कह दिया था कि तुम चलो हम भी पीछे से आयेंगे। इसी आनन्दमें भक्त प्रसन्नतापूर्वक चले गये थे। वर्षाकाल समाप्त हो गया। क्वार का महीना आ गया। विजयादशमी के दिन महाप्रभु ने गौड़ होते हुए वृन्दावन जाने का निश्चय किया। प्रातःकाल उठकर वे नित्यकर्म से निवृत्त हुए। समुद्र-स्नान करके प्रभु लौटे भी नहीं थे कि इतने में ही भक्तों की भीड़ लगनी आरम्भ हो गयी। धीरे-धीरे सभी मुख्य-मुख्य भक्त महाप्रभु के स्थानपर एकत्रित हुए। महाप्रभु सभी भक्तों को साथ लेकर श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये चले। मन्दिर में पहुँचकर प्रभु ने भगवान से आज्ञा माँगी, उसी समय पुजारी ने माला और प्रसाद लाकर प्रभु को दिया। भगवान की प्रसादी, माला और महाप्रसादान्न पाकर प्रभु अत्यन्त ही सन्तुष्ट हुए और इसे ही भगवान की आज्ञा समझकर मन्दिर की प्रदक्षिणा करते हुए वे कटक की ओर चलने लगे। प्रभु के पीछे-पीछे सैकड़ों गौड़देशीय तथा उड़िया-भक्त आँसू बहाते हुए चल रहे थे। महाप्रभु उनसे बार-बार लौटने के लिये कहते, उनसे आग्रह करते, चलते-चलते खड़े हो जाते और सबको प्रेमपूर्वक आलिंगन करते हुए कहते- 'बस अब हो गया। आपलोग अपने-अपने घरों को लौट जायँ। पुरुषोत्तमभगवान की कृपा होगी तो मैं शीघ्र ही लौटकर आपलोगों के दर्शन करूँगा।' इस प्रकार प्रभु भाँति-भाँति से उन्हें समझाते, किन्तु कोई पीछे लौटता ही नहीं था, लौटना तो अलग रहा, पीछे की ओर देखने में भी भक्तों का हृदय फटता था, वे प्रभु के वियोगजन्य दुःख का स्मरण आते ही जोरों से रुदन करने लगते। इस प्रकार भक्तों को आग्रह करते-करते ही प्रभु भवानीपुर आ पहुँचे। महाप्रभु ने अब आगे और चलना उचित नहीं समझा, अतः यहीं रात्रि-निवास करने का निश्चय किया। इतने में ही पालकी पर चढ़कर राय रामानंदजी भी प्रभु की सेवा में आ पहुँचे। उनके छोटे भाई वाणीनाथ जी भी भगवान का बहुत-सा प्रसाद कई आदमियों से साथ लिवाकर भवानीपुर आ उपस्थित हुए। महाप्रभु ने अपने हाथों से जगन्नाथजी का महाप्रसाद सभी भक्तों को आग्रहपूर्वक खूब ही खिलाया और आपने भी भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त साथ ही प्रसाद पाया। रात्रिभर सभी ने वहीं विश्राम किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उत्तम बात तो यह है कि सज्जनों का संग ही न हो, यदि कदाचित संग हो ही जाय, तो उनसे स्नेह न हो, दैवयोग से स्नेह भी हो जाय तो उनसे वियोग न हो और यदि वियोग हो तो फिर इस जीवन की आशा न रहे। अर्थात् प्यारे के विरह की अपेक्षा मर जाना अच्छा है। सु. र. भां. 91।20