श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी71. नदिया में प्रेम-प्रवाह और क़ाज़ी का अत्याचार
प्रेम ही ‘जीवन’ है। जिस जीवन में प्रेम नहीं, वह जीवन नहीं जंजाल है। जहाँ प्रेम है, वही वास्तविक प्रेम की छटा दृष्टिगोचर होती है। कहीं प्रेमियों का सम्मिलन देखिये, प्रेमियों की वार्ता सुनिये अथवा प्रेमियों के हास-परिहास, खान-पान अथवा उनके मेलों-उत्सवों में सम्मिलित हूजिये, तब आपको पता चलेगा कि वास्तविक जीवन कैसा होता है और उसमे कितना मजा है, कितनी मिठास है। उस मिठास के सामने संसार के जितने मीठे कहे जाने वाले पदार्थ हैं, सभी फीके-फीके–से प्रतीत होने लगते हैं। किसी भाग्यवान पुरुष के शरीर में ही प्रेम प्रकट होता है और उसकी छत्रछाया में जितने भी प्राणी आकर आश्रय ग्रहण करते हैं, वे सभी पावन बन जाते हैं, उन्हें भी वास्तविक जीवन का सुख मिल जाता है। प्रेमी जिस स्थान में निवास करता है, वह भूमि पावन बन जाती है, जिस स्थान में वह क्रीड़ा करता है, वह स्थान तीर्थ बन जाता है, और जिन पुरुषों के साथ वह लीला करता है, वे बड़भागी पुरुष भी सदा के लिये अमर बन जाते हैं। जिस नवद्वीप में प्रेमवतार गौरचन्द्र उदित होकर अपनी सुखद शीतल किरणों के प्रकाश से संसारी तापों से आक्लांत प्राणियों को शीतलता प्रदान कर रहे हों उस भाग्यवती नगरी के उस समय के आनन्द का वणन कर ही कौन सकता है? महाप्रभु के कीर्तनारम्भ से सम्पूर्ण नवद्वीप एक प्रकार से आनन्द का घर ही बन गया था। वहाँ हर समय श्रीकृष्ण-कीर्तन की सुमधुर ध्वनि सुनायी पड़ती थी। जगाई-मधाई के उद्धार से लोग संकीर्तन का महत्त्व समझने लगे। हजारों लोग सदा प्रभु के दशर्नों के लिये आते। वे प्रभु के लिये भाँति-भाँति की भेंटे लाते। कोई तो सुंदर पुष्पों की मालाएँ लाकर प्रभु के गले में पहनाता, कोई स्वादिष्ट फलों को ही उपहारस्वरूप प्रभु के सामने रखता। बहुत-से सुंदर-सुंदर पकवान अपने घरों से लाकर प्रभु को भेंट करते। प्रभु उनमें से थोड़ा-सा लेकर सभी के मन को प्रसन्न कर देते। सभी आकर पूछते- प्रभो! हमलोग भी कुछ कर सकते हैं? क्या हमलोगों को भी कृष्ण कीर्तन का अधिकार है?’ प्रभु कहते- ‘कृष्ण-कीर्तन सब कोई कर सकता है। इसमें तो अधिकार-अनधिकारी का प्रश्न ही नहीं। भगवन्नाम के तो सभी अधिकारी हैं। नाम में विधि-निषेध अथवा ऊँच-नीच का विचार ही नहीं। आपलोग प्रेम-पूर्वक श्रीकृष्ण-कीर्तन कर सकते हैं।‘ इस पर लोग पूछते- ‘प्रभो! हमलोग तो जानते भी नहीं, कीर्तन कैसे किया जाता है। हमें आजतक संकीर्तन की शिक्षा ही नहीं मिली और न हमने इसकी पद्धति किसी पुस्तक में ही पढ़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसकी जिह्वा से एक बार भगवान के मधुर नाम का उच्चारण हो गया है या स्मरण के द्वारा हृदय में स्फुरित हो गया है अथवा कान से सुन ही लिया है, फिर चाहे उस नाम का उच्चारण शुद्ध हुआ हो या अशुद्ध अथवा व्यवधान सहित हो तो भी उस नाम के उच्चारण, स्मरण अथवा श्रवण से मनुष्य अवश्य ही तर जाता है। किन्तु उस नाम का व्यवहार शुद्ध भावना से होना चाहिये। यदि शरीर, धन, स्त्री, लोभ अथवा पाखण्ड के लिये नाम का आश्रय लिया जायगा तो (नाम लेना व्यर्थ तो जायगा नहीं, उससे फल तो अवश्य ही होगा; किंतु) वह शीघ्र फल देने वाला न हो सकेगा। पद्मपुराण