विषय सूचीश्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी63. जगाई-मधाई की क्रूरतानित्यानन्द की उनके उद्धार के निमित्त प्रार्थना
यदि इस स्वार्थपूर्ण संसार में साधु पुरुषों का अस्तित्व न होता, यदि इस पृथ्वी को परमार्थी महापुरुष अपनी पद-धूलि से पावन न बनाते, यदि इस संसार में सभी लोग अपने-अपने स्वार्थ की ही बात सोचने वाले होते तो यह पृथ्वी रौरव नरक के समान बन जाती। इस दु:खमय जगत को परमार्थी साधुओं ने ही सुखमय बना रखा है, इस निरानन्द जगत को अपने नि:स्वार्थभाव से महात्माओं ने ही आनन्द का स्वरूप बना रखा है। स्वार्थ में चिन्ता है, परमार्थ में उल्लास। स्वार्थ में सदा भय ही बना रहता है, परमार्थ-सेवन से प्रतिदिन अधिकाधिक धैर्य बढ़ता जाता है। स्वार्थ में सने रहने से ही दीनता आती है, परमार्थी निर्भिक और निडर होता है। इतना सब होने पर भी क्रूर पुरुषों का असितत्त्व रहता ही है। यदि अविचारी पाप कर्म करने वाले क्रूर पुरुष न हों तो महात्माओं की दया, सहनशीलता, नम्रता, सहिष्णुता, सरलता, परोपकारिता तथा जीवमात्र के प्रति अहैतु की करुणा का प्रकाश किस प्रकार हो? क्रूर पुरुष अपनी क्रूरता करके महापुरुषों को अवसर देते हैं कि वे अपनी सद्वृत्तियों को लोगों के सम्मुख प्रकट करें, जिनका अनुसरण करके दु:खी और चिन्तित पुरुष अपने जीवन को सुखमय और आनन्दमय बना सकें। इसीलिये तो सृष्टि के आदि में ही मधु-कैटभ नाम के दो राक्षस ही पहले-पहल उत्पन्न हुए। उन्हें मारने पर ही तो भगवान मधु-कैटभारि बन सके। रावण न होता तो राम जी के पराक्रम को कौन पहचानता? पूतना न होती तो प्रभु की असीम दयालुता का परिचय कैसे मिलता? शिशुपाल यदि गाली देकर भगवान के हाथ से मरकर मुक्ति-लाभ न करता तो ‘क्रोधोअपि देवस्य वरेण तुल्य:’[2] इस महामन्त्र का प्रचार कैसे होता? अजामिल-जैसा नीच कर्म करने वाला पापी पुत्र के बहाने ‘नारायण’ नाम लेकर सद्गति प्राप्त न करता तो भगवन्नाम की इतनी अधिक महिमा किस प्रकार प्रकट होती? अत: जिस प्रकार संसार को महात्मा और सत्पुरुषों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार दुष्टों की क्रूरता से भी उसका बहुत कुछ काम चलता है। भगवान तो अवसर तब धारण करते हैं जब पृथ्वी पर बहुत-से क्रूर कर्म करने वाले पुरुष उत्पन्न हो जाते हैं। क्रूरकर्मा पुरुष अपनी क्रूरता करने में पीछे नहीं हटते और महात्मा अपने परमार्थ और परोपकार के धर्म को नहीं छोड़ते। अन्त में विजय धर्म की ही होती है; क्योंकि ‘यतो धर्मस्ततो जय:।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साधु पुरुषों के लिये कौन-सी बात दु:सह है? विद्वानों को किस वस्तु की अपेक्षा है, नीच पुरुष क्या नहीं कर सकते और धैर्यवान पुरुषों के लिये कौन-सा कठिन है? अर्थात-महात्मा सब कुछ सहन कर सकते हैं, असली विद्वान को किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं रहती, नीच पुरुष अत्यन्त निन्द्य-से-निन्द्य क्रूर कर्म भी कर सकते हैं और धैर्यवानों के लिये कोई भी काम कठिन नहीं है। श्रीमद्भा. 10/1/58
- ↑ अर्थात् भगवान् का क्रोध भी वरदान के ही समान है।