श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी98. सार्वभौम का भगवत-प्रसाद में विश्वास
महाप्रसादे गोविन्दे नाम्नि ब्रह्मणि वैष्णवे। अविश्वास का मुख्य कारण है अप्रेम। जहाँ प्रेम नहीं वहाँ विश्वास भी नहीं और जहाँ प्रेम है वहीं विश्वास भी है। अद्वैतवेदान्त के अनुसार इस सम्पूर्ण दृश्य जगत का अस्तित्व हमारे मन के विश्वास पर ही है। जिस समय हमारे मन से इस जगत की सत्यता पर से विश्वास उठ जायगा, उस दिन यह जगत रहेगा ही नहीं। इसीलिये वेदान्ती कहते हैं,’तुम इस बात का विश्वास करो कि ‘सोऽहम्’ ‘चिदानन्दरुप शिवोऽहं शिवोऽहम्’ अर्थात ‘मैं वही हूं’ मैं चिदानन्दरूपी शिव ही हूँ।’ हमारी वृत्ति बहिर्मुखी है, क्योंकि हमारी इन्द्रियों के द्वार बाहर की ओर हैं, इसलिये हम बाहरी वस्तुओं पर तो विश्वास करते हैं, किन्तु उनमें जो भीतर छिपा हुआ रहस्य है, उसे हम नहीं समझ सकते। जिसने उस भीतर छिपे हुए रहस्य को समझ लिया वह सचमुच में सब बन्धनों से मुक्त हो गया। भगवान के प्रसाद के बहाने से कितने लोग अपनी विषय-वासनाओं को पूर्ण करते हैं। नामका आश्रय ग्रहण करके लोग इस प्रकार के पापकर्मों में प्रवृत्त होते हैं। वास्तव में उन्हें प्रसाद का और भगवन्नाम का माहात्म्य नहीं मालूम है, तभी तो वे चमकते हुए काँच के बदले में हीरा दे देते हैं। जो भगवन्नाम सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने में समर्थ है, उसे सोने-चांदी कके ठिकराओं के ऊपर बेचने वालों के हाथ में वे ठिकरा ही रह जाते हैं। भगवन्नाम के असली सुस्वादु मधुरातिमधुर फल से वे लोग वंचित रह जाते हैं। विश्वास ने जिसने एक बार महाप्रसाद पा लिया, फिर उसकी जिह्वा खट्टे-मीठे के भेदभाव को भूल जायगी। जिसने श्रद्धा-विश्वास के सहित एक बार भगवन्नाम का उच्चारण कर लिया, फिर उसे संसारी किसी पदार्थ की वांछा नहीं रह सकती। एक बड़े भारी महात्मा ने हमें एक कहानी सुनायी थी- एक सरलहृदया स्त्री थी। उसने कभी भी भगवान का नाम नहीं लिया; किन्तु जीवन में कभी कोई खोटा काम भी नहीं किया। उसके द्वारा किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं होता था। एक दिन उसने एक बड़े भारी भक्त के मुख से यह श्लोक को सुना- एकोऽपि कृष्णस्य कृत: प्रणामो अर्थात जिसने एक बार भी कृष्ण के पादपह्यों में श्रद्धा-भक्ति के सहित प्रणाम कर लिया उसे उतना ही फल हो जाता है जितना कि दस अश्वमेधादि यज्ञ करने वाले पुरुष को होता है। किन्तु इन दोनों के फल में एक बड़ा भारी वेद होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शुक्रदेव जी राजा परीक्षित से कह रहे हैं- भगवान के महाप्रसाद में, भगवान में, भगवन्नाम में, ब्रह्म तथा ब्रह्मवेत्ता में और वैष्णव पुरुषों में थोड़े पुण्यवालों का विश्वास नहीं होता। व्यास. व.
- ↑ महाभारत