श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी123. नित्यानन्द जी का गोड़-देश में भगवन्नाम-वितरण
नित्यानन्द जी का स्वभाव सदा से अबोध बालकों का-सा ही था। वे पुरी में सदा वाल्य-भाव में ही बने रहते। उनमें अनन्त गुण होंगे, किन्तु एक गुण उनमें सर्वश्रेष्ठ था। वे महाप्रभु को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। प्रभु के चरणों में की उन प्रगाढ़ प्रीति थी। प्रभु के अतिरिक्त वे और किसीको कुछ समझते ही न थे। उनके लिये भगवान, परमात्मा तथा ब्रह्मा जो भी कुछ थे, चैतन्य महाप्रभु ही थे। प्रभु से वे बालकों की भाँति बातें करते। घूमने का उनका पहले से ही स्वभाव था और बच्चों के साथ खेलने में वे सबसे अधिक आनन्द का अनुभव करते थे। सदा बच्चों के साथ खेलते रहते और उनसे जोरों से कहलाते- 'गौर हरि बोल, गौर हरि बोल, चैतन्यकृष्ण श्रीगौर हरि बोल।' बच्चे इन नामोंकी धूम मचा देते तब ये उनके मुख से इस संकीर्तन को सुनकर बड़े ही प्रसन्न होते। एक दिन महाप्रभु ने इन्हें समीप बुलाकर कहा- 'श्रीपाद! मेरा आपके प्रति कितना स्नेह है, इसे मैं ही जानता हूँ। मैं आपको एक क्षण भी अपने से पृथक करना नहीं चाहता, किन्तु जीवों का दुःख मुझसे देखा नहीं जाता। गौड़-देश के मनुष्य तो भगवान को एकदम भूल गये हैं। जो कुछ थोड़े-बहुत पढ़े हैं, वे अपने विद्याभिमान में सदा चूर बने रहते हैं। उन्हें न्याय की शुष्क फक्किकाओं के घोखने से ही अवकाश नहीं मिलता। वे कृष्ण-कीर्तन को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। आपके सिवा गौड़-देश का उद्धार और कोई नहीं कर सकता। यह काम आपके ही द्वारा हो सकेगा इसलिये जीवों के कल्याण के निमित्त आपको मुझसे पृथक् होकर गौड़-देश में भगवन्नाम-वितरण करनेके लिये जाना होगा। आप ही ऊँच-नीच का भेदभाव न रखकर सब लोगों को भगवन्नाम का उपदेश दे सकते हैं।' प्रभु के इस मर्मवेधी वाक्य को सुनकर नित्यानन्द जी की आँखों में आंसू आ गये और वे रुँधे हुए कण्ठ से कहने लगे-'प्रभो! आप सर्व समर्थ हैं। आपकी लीला जानी नहीं जाती। पता नहीं किसके द्वारा आप क्या कराना चाहते हैं। भला, आपकी अनुपस्थिति में मैं कर ही क्या सकता हूँ। प्रभो! मैं आपके बिना कुछ भी न कर सकूँगा, मुझे अपने चरणों से पृथक न कीजिये।' महाप्रभु ने कहा- 'आप समय-समय पर मुझे यहाँ आकर दर्शन दे जाया करें और भगवान के दर्शन कर जाया करें। अब तो आपको गौड़-देश में जाना ही चाहिये।' नित्यानन्द जी विवश हो गये, उन्होंने विवश होकर महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की और अभिरामदास, गदाधरदास, कृष्णदास और पुरन्दर पण्डित आदि भक्तों को साथ लेकर उन्होंने गौड़-देश के लिये प्रस्थान किया। उन्हें अब किसी बात का भय तो था नहीं। महाप्रभुने स्वयं कह दिया है कि मैं सदा आपके साथ रहूँगा, आप बिना किसी भेदभाव के निडर होकर सर्वत्र भवन्नाम-वितरण करें। इस बात पर पूर्ण विश्वास करते हुए नित्यानन्द जी प्रेम में विभोर हुए आगे बढ़ने लगे। वे आनन्द में झूमते हुए, मस्ती में नाचते और गौर की दया को स्मरण करते हुए भक्तों के साथ जा रहे थे। उन्हें अपने लिये कोई कर्तव्य नहीं था, वे जीवों के कल्याण के ही निमित्त अपने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके गौड़-देशमें आये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिनके कर्ण में मुक्तामय कुण्डल लटक रहा है और जिन्होंने श्रीचैतन्यदेव के अग्रज रूप से इस पृथ्वी को भक्ति रस से प्लावित करके परम पावन बना दिया है, उन नित्यानन्द प्रभु को हम प्रणाम करते हैं। श्रीचैतन्य महा.