श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी162. गम्भीरा-मन्दिर में श्री गौरांग
प्रेमानामाद्भुतार्थ श्रवणपथगत: कस्या नाम्नां महिम्न: महाप्रभु गौरांगदेव चौबीस वर्ष की अल्पावस्था में कठोर संन्यास-धर्म की दीक्षा लेकर पुरी पधारे। पहले छ: वर्षों में तो वे भारतवर्ष के विविध तीर्थों में भ्रमण करते रहे और सबसे अन्त में आपने श्री वृन्दावन धाम की यात्रा की। महाप्रभु की यही अन्तिम यात्रा थी। वृन्दावन से लौटकर अन्त के अठारहों वर्षों तक आप अविच्छिन्न भाव से सचल जगन्नाथ के रूप में पुरी अथवा नीलाचंल में ही अवस्थित रहे। फिर आपने पुरी की पावन पृथ्वी का परित्याग करके कहीं को भी पैर नहीं बढाया। गौड़े देश से रथ यात्रा के समय प्रतिवर्ष बहुत से भक्त आया करते थे। और वे बरसात के चार महीनों तक प्रभु के पादपद्मों के सन्निकट रहकर अपने-अपने स्थानों को चले जाया करते थे। छ: वर्षों तक तो प्रभु उनके साथ उसी प्रकार क्रीड़ा, उत्सव और संकीर्तन करते रहे। अन्त में आपका प्रेमोन्माद साधारण सीमा का उल्लंघन करके पराकाष्ठा तक पहुँच गया, उसमें फिर भला इस प्राकृतिक शरीर का होश कहाँ, ये तो प्रकृति के परे की बात है। सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों का वहाँ प्रवेश नहीं, यह सब तो त्रिगुणातीत विषय है। उसमें मिलना-जुलना, बातचीत करना, खाना-पीना तथा अन्यान्य कार्यों का सम्पादन करना हो ही नहीं सकता। शरीर स्वयं ही यंत्र के समान इन कार्यों को आवश्यकतानुसार करता रहता है। चित्त से इन कामों का कोई सम्बन्ध नहीं, चित्त तो अविच्छिन्न भाव से उसी प्रियतम की रूपमाधुरी का पान करता रहता है। महाप्रभु का चित्त भी बारह वर्षों तक शरीर को छोड़कर वृन्दावन के किसी काले रंग के ग्वाल-बालक के साथ चला गया था। उनका बेमन का शरीर पुरी में काशी मिश्र के विशाल घर के एक निर्जन गम्भीरा-मन्दिर में पड़ा रहता था। इससे पूर्व कि हम महाप्रभु की उस दिव्योन्मादकारी प्रेमावस्था के सम्बन्ध में कुछ कहें, यह जान लेना आवश्यक है कि वह गम्भीरा-मन्दिर वास्तव में क्या है? श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर के समीप ही उड़ीसाधिप महाराज प्रतापरुद्र जी के कुल गुरु पण्डित काशी मिश्र जी के विशाल घर में प्रभु निवास करते थे। मिश्र जी का वह भवन बहुत ही बड़ा था। अनुमान से जाना जाता है कि उसमें तीन परकोटे रहे होंगे और सैकड़ों मनुष्य उसमें सुखपूर्वक रह सकते होंगे। तभी तो गौड़ देश से आये हुए प्राय: सभी भक्त चार महीनों तक वहीं निवास करते थे। महाप्रभु उसी भवन में रहते थे। अन्यान्य दूसरे मकानों में परमानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती, स्वरूपदामोदर, रघुनाथदास, जगदानन्द, वक्रेश्वर पण्डित तथा अन्यान्य विरक्त भक्त रहते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रेम नामक अद्भुत पदार्थ किसके कर्णगोचर हो सकता था? नाम की महिमा को कौन जान सकता था? वृन्दावन की माधुरी में किसका प्रवेश हो सकता था? उत्तम रस-श्रृंगार के चमत्कारपूर्ण माधुर्य की सीमा-राधा को कौन जान पाता? एक श्रीचैतन्यचन्द्र महाप्रभु ने अपनी स्वाभाविक परम करुणा के द्वारा इन सभी बातों को पृथ्वी पर प्रकट कर दिया। श्रीप्रकाशानन्द