श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी13. बाल्य-भाव
दिग्वाससं गतव्रीडं जटिलं धूलिधूसरम्। ‘इस काम के करने से क्या फायदा?’ 'इसको क्यों करें, इससे हमारा क्या मतलब?’ ये प्रश्न स्वार्थजन्य हैं, स्वार्थ अज्ञानजन्य है और अज्ञान ही बन्धन का हेतु है। ‘भगवान् ने इस सृष्टि को क्यों उत्पन्न किया?’ यह सभी अज्ञानी जीवों की शंका है, जो बिना मतलब के कुछ करना ही नहीं जाते। इसीलिये भगवान व्यासदेव जी ने इसका यही सीधा-सादा उत्तर दिया है कि उसका कुछ भी मतलब नहीं। ‘बाल-लीलावत’ है। बच्चों को देखा है, ख़ाली गाड़ी देखकर उस पर बहुत दूर तक चढ़कर चले जाते हैं और फिर उधर से पैदल ही लौट आते हैं। कोई पूछे- ‘ऐसा करने से उन्हें क्या लाभ?’ इसका उत्तर कुछ भी नहीं। लाभ-हानि बच्चा जानता ही नहीं। उसके लिये दो चीज हैं ही नहीं या तो लाभ-ही-लाभ है या हानि-ही-हनि। या तो उसके लिये सभी वस्तु पवित्र-ही-पवित्र हैं या सभी अपवित्र हैं। वह ज्यों-ज्यों हम लोगों के संसर्ग में रहकर ज्ञान या अज्ञान सीखता जाता है, त्यों-ही-त्यों मतलब और फायदा सोचने लगता है। उस समय उसकी वह द्वन्द्वातीतपने की अवस्था धीरे-घीरे लोप हो जाती है। फिर वह मजा जाता रहता है। बाल-भाव भी कितना मनोहर है, जब साधारण बालकों के ही विनोद में परम आनन्द और उल्लास भरा रहता है, तब दिव्य बालकों की लीलाओं का तो कहना ही क्या? उस समय तो लोग उन्हें नहीं जाते, ज्यों-ज्यों उनके जीवन में प्रकाश होने लगता है त्यों-ही-त्यों उन पुरानी बातों में भी रस भरता जाता है। निमाई अलौकिक बालक थे। उनकी लीलाएँ भी बड़ी मधुर और साधारण बालकों की भाँति होने पर भी परम अलौकिक थीं। पाठक स्वयं समझ लेंगे कि 3-4 वर्ष की अवस्था के बालक की कितनी गूढ़-गूढ़ बातें होती थीं। एक दिन माता ने देखा, निमाई एकदम नंगा है। इधर-उधर से चीरें उठाकर लपेट ली है। सम्पूर्ण शरीर में धूलि लपेटे हुए है। एक घूरे पर अशुद्ध हाँड़ियों पर आप बैठे हैं। हाँड़ियों में से कारिख लेकर मुँह और माथे पर काली-काली लम्बी-लम्बी रेखाएँ खींच ली हैं। शरीर में जगह-जगह काली बिंदी लगा ली है। एक फूटी हाँड़ी को खपड़े से बजा-बजाकर आप कुछ गा रहे हैं। सुवर्ण-जैसे शरीर पर भस्म के ऊपर काली-काली बिंदी बहुत ही भली मालूम होती थी। जो भी उधर से निकलता वही उस अद्भुत स्वाँग को देखने के लिये खड़ा हो जाता। निमाई अपने राग में मस्त थे, उन्हें दीन-दुनिया का कुछ भी पता नहीं। किसी ने जाकर यह समाचार शचीमाता को सुनाया। माता दौड़ी-दौड़ी आयीं और दो-चार मीठी-मीठी प्रेमयुक्त कड़ी बातें कहकर डाँटने लगीं- ‘निमाई! तू अब बहुत बदमाशी करने लगा है। भला ब्राह्मण के बेटे को ऐसे अपवित्र स्थान में बैठना चाहिये?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सम्पूर्ण शरीर धूलि से धूसरित हो रहा हो, छोटी-छोटी अलकावलि मस्तक के चारों ओर फहरा रही हो, जिसे किसी भी काम के करने में लज्जा न लगती हो और शरीर पर एक भी वस्त्र न हो ऐसे महादेव की भाँति दिगम्बर बालक को आँगन में खेलते हुए भाग्यवान ही गृहस्थ देख सकते हैं।