श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी147. नीलाचल में सनातन जी
श्री रूप तो सम्पत्ति की व्यवस्था करने के निमित्त गौड़ देश में ठहरे हुए हैं, अब इनके भाई श्री सनातन जी का समाचार सुनिये। सनात जी ने 'मथुरामाहात्म्य' हस्तगत करके उसी के अनुसार व्रजमण्डल के समस्त तीर्थो की यात्रा की। यात्रा के अनन्तर उन्हें अपने भाई से भेंट करने तथा प्रभु के दर्शनों की इच्छा हुई। अपने भाइयों का समाचार जानने के लिये वे व्रज से नीलाचल की ओर चल पड़े। गौड़ तो उन्हें जाना ही नहीं था, क्योंकि ये जेलर को इस बात का वचन दे आये थे। अत: प्रयाग से काशी होते हुए झाड़ीखण्ड के विकट रास्ते से ये जंगल के कण्टकाकीर्ण भयंकर पंथ के ही पथिक बने। रास्ते में जंगल की झाड़ियों की विषैली वायु लगने से इनके सम्पूर्ण अंग में भंयकर खुजली हो गयी। खुजली पक भी गयी और उससे पीब बहने लगा। जैसे-तैसे ये पुरी में पहुँचे। पुर में ये कहाँ ठहरें? पहले कभी आये नहीं थे। इतना उन्होंने सुन रखा था कि प्रभु कहीं मन्दिर के ही समीप में रहते हैं, किन्तु यवनों के संसर्गी होने के कारण ये अपने को मन्दिर के समीप जाने का अधिकारी ही नहीं समझते थे, इसलिये ये महात्मा हरिदास जी का स्थान पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। हरिदास जी इन्हें देखते ही खिल उठे इनकी यथो योग्य अभ्यर्चना की। सनातन प्रभु के दर्शनों के लिये बड़े उत्सुक हो रहे थे किन्तु मन्दिर के समीप न जाने के लिये विवश थे, तब हरिदास जी ने इन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा- 'आप घबड़ाइये नहीं, प्रभु यहाँ नित्य प्रति आते हैं, वे अभी आते ही होंगे।' इतने में ही दोनों ने श्री हरि के मधुर नामो का संकीर्तन करते हुए प्रभु को दूर से आते हुए देखा। प्रभु को देखते ही एक ओर हटकर श्री सनातन जी भूमि पर लोटकर साष्टांग प्रणाम करने लगे। हरिदास जी ने कहा- 'प्रभो! सनातन साष्टांग कर रहे हैं।' 'सनातन यहाँ कहां।' इतना कहते हुए प्रभु जल्दी से सनातन का आलिंगन करने के लिये दौडे़। प्रभु को अपनी ओर आते देखकर सनातन जी जल्दी से उठकर एक ओर दौडे़ और कातर स्वर से कहते जाते थे- 'प्रभो मैं नीच एक तो वैसे ही अधम, नीच और यवन-संसर्गी था, तिस पर भी मेरे सम्पूर्ण शरीर में खाज हो रही है। आप मेरा स्पर्श न करें।' किन्तु प्रभु कब सुनने वाले थे। जल्दी से दौड़कर उन्होंने बलपूर्वक सनातन जी को पकड़ लिया और उनका गाढ़ालिंगन करते हुए वे कहने लगे- 'आज हम कृतार्थ हो गये। सनातन के शरीर की सुन्दर सुगन्धित को सूंघकर हमारे लोक-परलोक दोनों ही सुधर गये।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री वृन्दावन लौटे हुए श्री सनातन को महाप्रभु श्री गौरांग देव ने श्री जगन्नाथ जी के रथ के चक्र के नीचे दबकर मरने के विचार से हटाकर और कठिन परीक्षा करके शुद्ध बना दिया। (श्री चैतन्यचरि. अ. ली. 4/1)