श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी129. विष्णुप्रिया जी को संन्यासी स्वामी के दर्शन
पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा। मेरा अपना ऐसा विश्वास है और शास्त्रों का भी यही सिद्धांत है कि यह संसार ए कान्तवासी तपस्वी महापुरुषों के पुण्य से तथा पतिव्रताओं के पातिव्रत के प्रभाव से ही स्थित है। शास्त्रों का भी यही अभिमत है कि संसार धर्म पर ही स्थित है और स्त्री-पुरुषों के लिये संसारी भोग्य-पदार्थों की आसक्ति छोड़कर प्रभु से प्रेम करना या मन, वचन तथा कर्म से पातिव्रत धर्म का पालन करना यही परमधर्म बताया गया है। तपस्वी को मान-सम्मान की इच्छा पीछे से हो सकती है, भगवद्भक्ति भी प्रसिद्धि के लिये की जा सकती है, किन्तु पतिव्रता को तो संसार से कुछ मतलब ही नहीं। वह तो मालती-कुसुम की भाँति निर्जन प्रदेश में विकसित होती है और अपने प्यारे को प्रसन्न कर के अन्त में मुरझाकर वहीं जीर्ण-शीर्ण हो जाती है, उस की गुप्त सुगन्धि संसार में व्याप्त होकर लोगों का कल्याण अवश्य करती है, किन्तु इसे तो कोई परम विवे की पुरुष ही समझ सकता है। सर्वसाधारण लोगों को तो उसके अस्तित्व का भी पता नहीं। इसीलिये कहता हूँ, पातिव्रत-धर्म योग, यज्ञ, तप, पाठ-पूजा और अन्य सभी साधनों से परमश्रेष्ठ है। एक सच्ची पतिव्रता सम्पूर्ण संसार को हिला सकती है, किन्तु ऐसी पतिव्रता बहुत थोड़ी होती हैं। पाठकवृन्द! विष्णप्रिया जी की मनोव्यथा को समझें। इस अल्प वयस् में उन्हें अपने प्राणेश्वर की असह्य विरह-वेदना सहनी पड़ रही है। उन के प्राणेश्वर भक्तों के लिये भगवान हैं। वे जीवों का उद्धार भी करते हैं। असंख्य जीव उन की कृपा से संसार-सागर से पार हो गये। भक्तों के लिये वे साक्षात नारायण हैं। हुआ करें, उन के लिये तो वे उन के पति-हृदयरमण पति ही हैं। वे उन के पास स्थूल शरीर से नहीं हैं तो न सही, उन के हृदय में तो पति की मूर्ति सदा विराजमान है, वे पति को छोड़कर और किसी का चिन्तन ही नहीं करतीं! अहा, धन्य है उन की एकनिष्ठ पतिभक्ति को। विष्णुप्रिया जी की आन्तरिक इच्छा थी कि एक बार इस जीवन में अपने आराध्यदेव के प्रत्यक्ष दर्शन और हो जायँ, किन्तु वे अपनी इच्छा को प्रकट किस प्रकार करतीं और किस के सामने प्रकट करतीं? यदि किसी से कहतीं भी तो वे स्वतंत्र ईश्वर हैं, किसी की बात मानने ही क्यों लगे ? इसलिये अपने मनोगत भावों को हृदय में ही दबाकर वे अपने इष्टदेव के चरणों में ही मन से प्रार्थना करने लगीं। वे प्रेमाकर्षण पर विश्वास रखती हुई कहने लगीं- 'वे तो मेरे घट की एक-एक बात को जानने वाले हैं, मेरा यदि सच्चा प्रेम होगा तो वे यहीं मुझे दर्शन देने आ जायँगे।' यही सोचकर वे चुपचाप बैठी रहीं। सचमुच प्रेम में बड़ा भारी आकर्षण है। हृदय में लगन होनी चाहिये, प्यारे के प्रति पूर्ण विश्वास हो, हृदय उस के लिये छटपटाता हो और स्नेह सच्चा हो तो फिर मिलने में सन्देह ही क्या है ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सती स्त्री का यही परमधर्म है कि (अग्नि को साक्षी देकर एक बार) जिसने उस का पाणिग्रहण किया है, वह पति चाहे जीवित हो या मर गया हो बस, उसी के साथ पतिलोक में रहने की इच्छा करती हुई उस की इच्छा के विरुद्ध कोई भी आचरण न करे। सु. र. भां. 366।17