श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी14. बाल-लीला
पंकाभिषिक्तसकलावयवं विलोक्य निमाई की सभी लीलाएँ दिव्य हैं। अन्य साधारण बालकों की भाँति वे चंचलता और चपलता तो करते हैं, किन्तु इनकी चंचलता में एक अलौकिक भाव की आभा दृष्टिगोचर होती है। जिसके साथ ये चपलता करते हैं, उसे किसी भी दशा में इनके ऊपर गुस्सा नहीं आता, प्रत्युत वह प्रसन्न ही होता है। ये चंचलता की हद कर देते हैं, जिस बात के लिये मना किया जाय, उसे ही ये हठपूर्वक बार-बार करेंगे- यही इनकी विशेषता थी। इन्हें अपवित्र या पवित्र किसी भी वस्तु से राग या द्वेष नहीं। इनके लिये सब समान ही है। एक दिन की बात है कि निमाई के पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र गंगास्नान करके घर लौट रहे थे। उन्होंने अपने घर के समीप एक परेदशी ब्राह्मण को देखा। देखने से वह ब्राह्मण किसी शुभ तीर्थ का प्रतीत होता था। उसके चेहरे पर तेज था, माथे पर चन्दन का तिलक था ओर गले में तुलसी की माला थी। मुख से प्रतिक्षण भगवन्नाम का जप कर रहा था। मिश्र जी ने ब्राह्मण को देखकर नम्रतापूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया और अपने यहाँ आतिथ्य स्वीकार करने की प्रार्थना की। मिश्र जी के शील-स्वभाव को देखकर ब्राह्मण ने उनका अतिथि होना स्वीकार किया और वे उनके साथ-ही-साथ घर में आये। घर पहुँचकर मिश्र जी ने ब्राह्मण के चरणों का प्रक्षालन किया और उस जल को अपने परिवार के सहित सिर पर चढ़ाया, घर में छिड़का तथा आचमन किया। इसके अनन्तर विधिवत अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय तथा फल-फूल के द्वारा ब्राह्मण की पूजा की और पश्चात् भोजन बना लेने की भी प्रार्थना की। ब्राह्मण ने भोजन बनाना स्वीकार कर लिया। शचीदेवी ने घर के दूसरी ओर लीप-पोतकर ब्राह्मण की रसोई की सभी सामग्री जुटा दी। पैर धोकर ब्राह्मण देव रसोई में गये। दाल बनायी, चावल बनाये, शाक बनाया और आलू भूनकर उनका भुरता भी बना लिया। शचीदेवी ने पापड़ दे दिये, उन्हें भूनकर ब्राह्मण ने एक ओर रख दिया। सब सामग्री सिद्ध होने पर ब्राह्मण ने एक बड़ी थाली में चावल निकाले, दाल भी हाँड़ी में से निकालकर थाली में रखी। केले के पत्ते पर शाक और भुरता रखा। भुने पापड़ को भात के ऊपर रखा। आसन पर सुस्थिर होकर बैठ गये, सभी पदार्थों में तुलसी पत्र डाले। आचमन करके वे भगवान का ध्यान करने लगे। आँखें बंद करके वे सभी पदार्थों को विष्णु भगवान के अर्पण करने लगे। इतने में ही घुँटुओं से चलते हुए निमाई वहाँ आ पहुँचे और जल्दी-जल्दी थाली में से चावल लेकर खाने लगे। ब्राह्मण ने जब आँख खोलकर देखा तो सामने बालक को खाते पाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक दिन यशोदा जी ने खूब अच्छी तरह नहवा धुवाकर बालक कृष्ण को आँगन में बिठा दिया। थोड़ी देर में माता क्या देखती हैं कि कृष्ण सम्पूर्ण शरीर में कीच लपेटे हुए आ रहे हैं। उन्हें देखकर माता को बड़ा गुस्सा आया और बोलीं-‘ओह पूतना के मारने वाले! मालूम पड़ता है, तू पहले जन्म में सूकर था, इसीलिये तेरी वह कीच में लोटने की आदत अभी तक बनी है।’ ऐसी बात सुनकर कृष्ण विस्मित से होकर माता के मुख की ओर देखने लगे। भक्त कहता है, ऐसे बालकृष्ण हमारा कल्याण करें।