श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी41. भक्त-भाव
भक्तगण दास्य, सख्य, वात्सल्य, शान्त और मधुर- इन पाँचों भावों के द्वारा अपने प्रियतम की उपासना करते हैं। उपासना में ये ही पाँच भाव मुख्य समझे गये हैं, किंतु इन पाँचों में भी दास्यभाव ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान है। या यों कह लीजिये कि दास्यभाव ही इन पाँचों भावों का मुख्य प्राण है। दास्यभाव के बिना न तो सख्य ही हो सकता है और न वात्सल्य, शान्त तथा मधुर ही। कोई भी भाव क्यों न हो, दास्यभाव इसमें अव्यक्त रूप से जरूर छिपा रहेगा। दास्य के बिना प्रेम हो ही नहीं सकता। जो स्वयं दास बनना नहीं जानता, वह स्वामी कभी बन ही नहीं सकेगा, जिसने स्वयं किसी की उपासना तथा वन्दना नहीं की है, वह उपास्य तथा वन्दनीय हो ही नहीं सकता। तभी तो अखिलब्राह्मण्ड कोटिनायक श्रीहरि स्वयं अपने श्रीमुख से कहते हैं- ‘क्रीतोऽहं तेन चार्जुन’ हे अर्जुन! भक्तों ने मुझे खरीद लिया है, मैं उनका क्रीतदास हूँ। क्योंकि वे स्वयं चराचर प्राणियों के स्वामी हैं। इसलिये स्वामीपने के भाव को प्रदर्शित करने के निमित्त वे भक्त तथा ब्राह्मणों के स्वयं दास होना स्वीकार करते हैं और उनके पदरज को अपने मस्तक पर चढ़ाने के निमित्त सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करते हैं। महाप्रभु अब भावावेश में आकर भक्तों के भावों को प्रकट करने लगे। भक्तों को सम्पूर्ण लोगों के प्रति और भगवत-भक्तों के प्रति किस प्रकार के आचरण करने चाहिये, उनमें भागवत पुरुषों के प्रति कितनी दीनता, कैसी नम्रता होनी चाहिये, इसकी शिक्षा देने के निमित्त वे स्वयं आचरण करके लोगों को दिखाने लगे। क्योंकि वे तो भक्ति-भाव के प्रदर्शक भक्तशिरोमणि ही ठहरे। उनके सभी कार्य लोकमर्यादा-स्थापन के निमित्त होते थे। उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी नहीं किया। यही तो प्रभु के जीवन में एक भारी विशेषता है। अध्यापकी का अन्त हो गया, ब्राह्यशास्त्र पढ़ना तथा पढ़ाना दोनों ही छूट गये, अब न वह पला-सा चांचल्य है और न शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद की उन्मादकारी धुन। अब तो इन पर दूसरी ही धुन सवार हुई है, जिस धुन में ये सभी संसारी कामों को ही नहीं भूल गये हैं, किंतु अपने-आपको भी विस्मृत कर बैठे हैं। इनके भाव अलौकिक हैं, इनकी बातें गूढ़ हैं। इनके चरित्र रहस्यमय हैं, भला सर्वदा स्वार्थ में ही सने रहने वाले संसारी मनुष्य इनके भावों को समझ ही कैसे सकते हैं। अब ये नित्यप्रति प्रातःकाल गंगा-स्नान के निमित्त जाने लगे। रास्ते में जो भी ब्राह्मण, वैष्णव तथा वयोवृद्ध पुरुष मिलता उसे ही नम्रतापूर्वक प्रणाम करते और उसका आशीर्वाद ग्रहण करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपने-आपको तृण से भी नीचा समझना चाहिये तथा तरु से भी अधिक सहनशील बनना चाहिये। स्वयं तो सदा अमानी ही बने रहना चाहिये, किंतु दूसरों को सदा सम्मान प्रदान करते रहना चाहिये। अपने को ऐसा बना लेने पर ही श्रीकृष्ण-कीर्तन के अधिकारी बन सकते हैं। क्योंकि श्रीकृष्ण-कीर्तन प्राणियों के लिये सर्वदा कीर्तनीय वस्तु है। श्रीकृष्णचैतन्यशिक्षाष्टक