श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी158. भक्त कालिदास पर प्रभु की परम कृपा
नैषां मतिस्ताव्दुरुक्रमाङघ्रिं वैष्णव ग्रन्थों में ‘भक्त-पद-रज’, ‘भक्त-पादोदक’ और ‘भक्तोच्छिष्ट द्रव्य’ इन तीनों का अत्यधिक माहात्म्य वर्णन किया गया है। श्रद्धालु भक्तों ने इन तीनो को ही साधन बल बताया है। सचमुच जिन्हें इन तीनों वस्तुऔं में श्रद्धा हो गयी, जिनकी बुद्धि में से भक्तों के प्रति भेदभाव मिट गया, जो भगवत्स्वरूप समझकर सभी भक्तो की पदधूलि को श्रद्धा पूर्वक सिर पर चढ़ाने लगे तथा भक्तों के पादोदक को भक्ति से पान करने लगे, वे निहाल हो गये, उनके लिये भगवान फिर दूर नहीं रह जाते। उनकी पदधूलि की लालसा से भगवान उनके पीछे-पीछे घूमते रहते हैं, किन्तु इन तीनों में पूर्ण श्रद्धा होना ही तो महाकठिन है। महाप्रसाद, गोविन्द, भगवन्नाम और वैष्णवों के श्री विग्रह में पूर्ण विश्वास भगवत-कृपापात्र किसी विरले ही महापुरुष को होता है। यों दूध पीने वाले बनावटी मजनू तो बहुत से घूमते हैं। उनकी परीक्षा तो कटोरा भर खून माँगने पर ही हो सकती है। वे महापुरुष धन्य हैं, जो भक्तों की जाति-पाँति नहीं पूछते। भगवान में अनुराग रखने वाले सच्चे भगवत भक्त को वे ईश्वर तुल्य ही समझकर उनकी सेवा पूजा करते हैं। भक्त प्रवर श्री कालिदास ऐसे ही परम भागवत भक्तों में से एक जगद्वन्द्य श्रद्धालु भक्त थे। उनकी अद्वितीय भक्तिनिष्ठा सुनकर सभी को परम आश्चर्य होगा। कालिदास जी जाति के कायस्थ थे। इनका घर श्रीरघुनाथदास जी के गाँव से कोस, डेढ़ कोस भेदा या भदुआ नामक ग्राम में था। जाति सम्बन्ध से वे रघुनाथदास जी के समीपी और सम्बन्धी थे। भगवन्नाम में इनकी अनन्य निष्ठा थी। उठते बैठते, सोते जागते, हँसते-खेलते तथा बातें करते करते भी सदा इनकी जिह्वा पर भगवन्नाम ही विराजमान रहता। हरे कृष्ण हरे राम बिना ये किसी बात को कहते ही नहीं थे। भगवत-भक्तों के प्रति इनकी ऐसी अद्भुत निष्ठा थी कि जहाँ भी किसी भगवत भक्त का पता पाते वहीं दौड़े जाते और यथाशक्ति उनकी सेवा करते। भक्तों को अच्छे अच्छे पदार्थ खिलाने में उन्हें परमानन्द का अनुभव प्राप्त होता। भक्तों को जब ये श्रद्धा पूर्वक सुस्वादु पदार्थ खिलाते तो उनके दिव्य स्वादों का ये स्वयं भी अनुभव करते। स्वयं खाने से इन्हें इतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि भक्तों को खिलाने से। भक्तों को खिलाकर ये स्वयं उनका उच्छिष्ट महाप्रसाद पाते, कोई कोई भक्त संकोचवश इन्हें अपना उच्छिष्ट नहीं देता तो से उसके बर्तनों को ही चाटते। उसी महाप्रसाद को पाकर ये अपने को कृतार्थ समझते। निरन्तर भगवन्नामों का जप करते रहना, भक्तों का पादोदक पान करना, उनकी पदधूलि को मस्तक पर चढ़ाना और उनके अच्छिष्ट महाप्रसाद को पूर्ण श्रद्धा के साथ पाना ही-ये इनके साधनबल थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया है, ऐसे परम पूजनीय भगवदभक्त महापुरुषों के चरणों के नीचे की धूलि को जब तक सर्वाग में लगाकर उसमें स्नान न किया जाय तब तक किसी को भी प्रभुपादपद्मों की प्रीति प्राप्त नहीं हो सकती। श्रीमद्भा. 7/5/32