श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी151. धन मांगने वाले भृत्य को दण्ड
प्रेमरूपी धन की प्राप्ति में ही सदा यत्नशील रहते हैं, वे उदरपूर्ति के लिये अन्न और अंग रक्षा के लिये साधारण वस्त्रों के अतिरिक्त किसी प्रकार के धन का संग्रह नहीं करते। धन का स्वभाव है लोभ उत्पन्न करना और लोभ से द्वेष की प्रगाढ़ मित्रता है। जहाँ लोभ रहेगा वहाँ दूसरों के प्रति द्वेष अवश्य विद्यमान रहेगा। द्वेष से घृणा होती है और पुरुषों के प्रति घृणा करना यही नाश का कारण है। इन्हीं सब बातों को सोचकर तो त्यागी महापुरुष द्रव्य का स्पर्श नहीं करते। वे जहाँ तक हो सकता है, द्रव्य से दूर ही रहते हैं। गृहस्थियों का तो द्रव्य के बिना काम चलना ही कठिन है, उन्हें तो गृहस्थी चलाने के लिये द्रव्य रखना ही होगा, किन्तु उन्हें भी अधर्म से या अनुचित उपायों से धनार्जन करने की प्रवृत्ति को एकदम त्याग देना चाहिये। धर्म पूर्वक न्यायोचित रीति से प्राप्त किया हुआ धन ही फलीभूत होता है और वही उन्हें संसारी बन्धनों से छुड़ाकर धीरे-धीरे परमार्थ की ओर ले जाता है। जो संखिया वैसे ही बिना सोचे-विचारे खा लिया जाये तो वह मृत्यु का कारण होता है और उसे ही वैद्य के कथनानुसार शोधकर खाया जाय तो वह रसायन का काम करता है, उससे शरीर नीरोग होकर सम्पूर्ण अंग पुष्ट होते हैं। इसलिये वैद्य रूपी शास्त्र की बतायी हुई धर्मरूपी विधि से सेवन किये जाने वाला विषरूपी धन भी अमरता प्रदान करने वाला होता है। महाप्रभु चैतन्यदेव जिस प्रकार स्त्री संगियों से डरते थे, उसी प्रकार धनलोलुपों से भी वे सदा सतर्क रहते थे। जो स्त्री सेवन अविधिपूर्वक कामना वासना की पूर्ति के लिये किया जाता है, शास्त्रों में उसी की निन्दा और उसी कामिनी को नरक का द्वार बताया है। जिसका पाणि ग्रहण्ा शास्त्र मर्यादा के साथ विधि पूर्वक किया गया है, वह तो कामिनी नहीं, धर्म पत्नि है। उसका उपयोग कामवासनातृप्ति न होकर धार्मिक कृत्यों में सहायता प्रदान करना है। ऐसी स्त्रियों का संग तो प्रवृत्ति मार्ग वाले गृहस्थियों के लिये परम धर्म है। इसी प्रकार धर्म पूर्वक विधियुक्त, विनय और पात्रता के साथ उपार्जन किया हुआ धन धर्म तथा सुख का प्रधान कारण होता है। उस धन को कोई अन्यान से अपनाना चाहता है तो वह विषयी है, ऐसे विषयी लोगों का साथ कभी भी न करना चाहिये। श्री अद्वैताचार्य गृहस्थी थे, इस बात को तो पाठक जानते ही होंगे। उनके दो स्त्रियां थीं, छ: पुत्र थे, दो-चार दासी-दास भी थे, बड़े पुत्र अच्युतानन्द को छोड़कर सभी घर-गृहस्थी वाले थे। सारांश कि उनका परिवार बहुत बड़ा था। इतना बड़ा परिवार होने पर भी वे भक्त थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विषयों के त्याग से ही पूर्ण शान्ति प्राप्त हो सकती है, ऐसा जिन्हें दृढ़ विश्वास हो गया है उन औचित्य के उपासक महापुरुषों को दूसरों के द्वारा दिया हुआ धन भी दु:खदायी ही प्रतीत होता है, वही धन यदि विषयी पुरुषों के लिये दे दिया जाये तो उनके हृदय में वह परम आनन्द और आह्लाद उत्पन्न करने वाला होता है, जिस प्रकार सुगन्धित मलयाचल चन्दन का रख आँखों में डालने से दु:खदायी प्रतीत होता है। और अन्य अंगों में लगाने से शीतलता प्रदान करने वाला होता है। सु. र. भां. 67/18