श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी38. वही प्रेमोन्माद
जिसके हृदय में भगवत्प्रेम उत्पन्न हो गया, उसे फिर अन्य संसारी बातें भली ही किस प्रकार लग सकती हैं? जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वाद कर लिया फिर वह गुड़ के मैल को आनन्द और उल्लास के साथ स्वेच्छा से कब पसन्द कर सकती है? स्थायी प्रेम प्राप्त होने पर तो मनुष्य सचमुच पागल बन जाता है, फिर उसे इस बाह्य-संसार का होश ही नहीं रहता। जिन्हें किन्हीं महापुरुष की कृपा से या किसी पुण्य-स्थान के प्रभाव के क्षणभर के लिये प्रेमावेश हो जाता है, वह तो वास्तव में प्रेम की झलक है। जैसे पर्वत के शिखर के ऊपर के बने हुए मन्दिर की किंचिन्मात्र धुँधली-सी चोटी देखकर सैकड़ों कोस दूर से ही कोई पथिक आनन्द में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे कि हम तो अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँच गये। यही दशा उस क्षणिक प्रेमी की है। वास्तव में अभी वह सच्चे प्रेम से बहुत दूर है। प्रेममार्ग में यथार्थ रीति से प्रवेश हो जाने पर तो उसकी वृत्ति संसारी विषयों में प्रवेश कर ही नहीं सकती। वह तो सदा प्रेम-मद में उन्मत्त-सा ही बना रहेगा। वह न तो क्षणभर में ऊपर ही चढ़ जायगा और न दूसरे ही क्षण में नीचे गिर जायगा। उसकी स्थिति तो सदा एक-सी बनी रहेगी। कबीरदास जी कहते हैं- वास्तव में प्रेमी की स्थिति तो सदा एक ही रस रहती है, उसे प्रतिक्षण अपने प्रियतम से मिलने की छटपटाहट होती रती है। वह सदा अतृप्त ही बना रहता है। प्यारे के सिवा उसका दूसरा कोई है ही नहीं। उसका प्रियतम उसे चाहता है या नहीं इसकी उसे परवा नहीं। इस बात का वह स्वप्न में भी ध्यान नहीं करता। वह तो अपने प्यारे को ही सर्वस्व समझकर उसकी स्मृति में सदा अधीर-सा बना रहता है। रसिक रसखाने ने प्रेम के स्वरूप का क्या ही सुन्दर वर्णन किया है- महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रेम ऐसा ही था। उनकी हृदय-कन्दरा से जो भक्ति-भाव का भव्य स्त्रोत उदित हो गया, वह फिर सदा उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रेमी भक्त प्रेम के भावावेश में पिशाच से पकड़े जाने वाले मनुष्य के समान कभी तो खिलखिलाकर हँस पड़ता है, कभी जोरों से चीत्कार करने लगता है, कभी भगवान की मंजुल मूर्ति का ध्यान करने लगता है, कभी लोगों के चरण पकड़-पकड़कर उनकी वन्दना करता है, फिर बार-बार लम्बी-लम्बी साँसे छोड़ने लगता है। लोकलज्जा की कुछ भी परवा न करता हुआ जोरों से हे हरे! जगत्पते! हे नारायण! इस प्रकार उच्चारण करने लगता है। श्रीमद्भा. 7/7/35