श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी36. प्रेम-स्त्रोत उमड़ पड़ा
संसार में उन्हीं मनुष्यों का जीवन धारण करना सार्थक कहा जा सकता है, जिनके हृदय-पटल पर हर समय मुरली मनोहर मुकुन्द की मंजुल मूर्ति नृत्य करती रहती हो। जिनके कर्ण-रन्ध्रों में प्रतिक्षण मनोहर मुरली की मधुर तान सुनायी पड़ती रहती हो। जिनके चक्षु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का दर्शन ही न करना चाहते हों, जिनका मनमधुप सदा भक्त-भयहारी भगवान के चरण-कमलों का मधुरातिमधुर मकरन्द-पान करता रहता हो, ऐसे शुभ-दर्शन भक्त स्वयं तो कृतकृत्य होते ही हैं, वे सम्पूर्ण संसार को भी अपनी पद-रज से पावन बना देते हैं। उनकी वाणी में उन्माद होता है, दृष्टि में जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होती है, उनके सभी कार्य अलौकिक होते हैं, उनके सम्पूर्ण कार्य लोकबाह्य और संसार के कल्याण करने वाले ही होते हैं। निमाई पण्डित की हृदय-कन्दरा में से जो त्रैलोक्यपावन प्रेम-स्त्रोत उमड़ने वाला था, जिसका सूत्रपात चिरकाल से हो रहा था, अद्वैताचार्य आदि भक्तगण जिसकी लालसा लगाये वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, उस स्त्रोत का पृथ्वी पर परिस्फुट होने का सुहावना समय अब सन्निकट आ पहुँचा। जगत-विख्यात गयाधाम को ही उसके प्रकट करने का अखण्ड यश प्राप्त हो सका। यही पावन पृथ्वी इसका कारण बन सकी। अहा ‘वसुन्धरा पुण्यवती च तेन’। सचमुच वह वसुन्धरा बड़भागिनी है, जिसका संसर्ग किसी महापुरुष की लोकविख्यात घटना के साथ हो सके। वही संसार में पावन तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। निमाई पण्डित अपने निवास स्थान पर अन्य साथियों के साथ भोजन बना रहे थे। दाल-साग बनकर तैयार हो चुके थे। चूल्हे में से थोड़ी अग्नि निकालकर दाल को उस पर रख दिया था। साग दूसरी ओर चौके में ही रखा था। चूल्हे पर भात बन रहा था। निमाई उसे बार-बार देखते। चावल तैयार तो हो चुके थे, किन्तु उनमें थोड़ा-सा जल और शेष था, उसे जलाने के लिये और भात केा शुष्क बनाने के लिये हमारे पण्डित ने उसे ढक दिया था। थोड़ी देर बाद वे कटोरी को भात पर से उतार ही रहे थे कि इतने में ही उन्हें दूर से पुरी महाशय अपनी ओर आते हुए दिखायी दिये। कटोरी को ज्यों-की-त्यों ही पृथ्वी पर पटककर ये उनकी चरण-वन्दना करने के लिये दौड़े। पुरी ने प्रेमपूर्वक इनका आलिंगन किया और वे हँसते हुए बोले- ‘अपने स्थान से किसी शुभ मुहूर्त में ही चले थे, जो ठीक तैयारी के समय पर आ पहुँचे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रथांगपाणिभगवान के ‘चक्रपाणि’ ‘गोपिजनवल्लभ’ ‘राधारमण’ आदि सुन्दर और सुमनोहर नामों का तथा उसके अर्थों का गान और उनकी अलौकिक दिव्य-दिव्य लीलाओं का संकीर्तन करता हुआ श्रेष्ठ भक्त निर्लज्ज और निरीह होकर निःसंगभाव से पृथ्वी पर विचरण करे। श्रीमद्भा. 11/2/39