श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी177. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक
महाप्रभु श्री गौरांगदेव ने संन्यास लेने के अनन्तर अपने हाथ से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की। उन्हें इतना अवकाश ही कहाँ था, वे तो सदा प्रेमवारुणी पान करके पागल से बने रहते थे। ऐसी दशा में पुस्तक-प्रणयन करना उनके लिेय अशक्य था। किन्तु उनके भक्तों ने उनके उपदेशामृत के आधार पर अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली। व्यास, वाल्मीकि, शंकर, रामानुज आदि बहुत-से महापुरुष अपनी अमर कृति से ही अन्धे हुए संसार को दिव्यलोक प्रदान करते हैं। दत्तात्रेय, जड़भरत, ऋषभदेव, अजगर मुनि आदि बहुत से सिद्ध महापुरुष अपने लोकातीत आचरणों द्वारा ही संसार को त्याग, वैराग्य और भोगों की अनित्यता का पाठ पढ़ाते हैं। बुद्धदेव, कबीरदास और परमहंस रामकृष्णदेव-जैसे बहुत-से परोपकारी महापुरुष अपनी अमोघ वाणी के ही द्वारा संसार का कल्याण करते हैं। श्री चैतन्यदेव ने तो अपने जीवन को ही प्रेम का साकार स्वरूप बनाकर मनुष्यों के सम्मुख रख दिया। चैतन्य-चरित्र की मनुष्य ज्यों-ज्यों आलोचना और प्रत्यालोचना करेंगे, त्यों ही त्यों वे शास्त्रीय सिद्धान्त साम्प्रदायिक, संकुचित सीमा से निकलकर संसार के सम्मुख सार्वदेशिक बन सकेंगे। चैतन्यदेव ने किसी नये धर्म की रचना नहीं की। संन्यासधर्म या त्यागधर्म जो ऋषियों का सनातन का धर्म है, उसी के ये शरणापन्न हुए और संसार के सम्मुख महान त्याग का एक सर्वोच्च आदर्श उपस्थित करके लोगों को त्याग का यथार्थ मर्म सिखा दिया। समय के प्रभाव से ज्ञानमार्ग में जो शुष्कता आ गयी थी, संसार को असार बताते-बताते जिनका हृदय भी सारहीन और शुष्क बन गया था, उसी शुष्कता को उन्होंने मेटकर त्याग के साथ सरलता का भी सम्मिश्रण कर दिया। उस त्यागमय प्रेम ने सोने में सुहागे का काम दिया। यही श्री चैतन्य का मैंने सार सिद्धान्त समझा है। किन्तु मैं अपनी मान्यता के लिये अन्य किसी को बाध्य नहीं करता। पाठक, स्वयं चैतन्य चरित्र का अध्ययन करें, और यथामति उसके सार सिद्धान्त का स्वयं ही पता लगाने का प्रयत्न करें। महाप्रभु ने समय-समय पर आठ श्लोक कहे हैं। वे सब महाप्रभुरचित ही बताये जाते हैं। वैष्णव मण्डली में वे आठ श्लोक ‘शिक्षाष्टक’ के नाम से अत्यन्त ही प्रसिद्ध है। उन पर बड़ी टीका-टिप्पणियां भी लिखी गयी हैं। ग्रन्थ के अन्त में उन आठ श्लोकों को अर्थसहित देकर हम इस ग्रन्थ को समाप्त करते हैं। जौ ‘श्री श्री चैतन्य–चरितावली’ को आदि से अन्त तक पढ़ेंगे वे परम भावगत तथा प्रेमी तो अवश्य ही होंगे, यदि न भी होंगे तो इस चारु चरित्र के पठन और चिन्तन से अवश्य ही वे प्रेमदेव की मनमोहिनी मूर्ति के अनन्य उपासक बन जायँगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीगौरांग प्रभु के प्रेमवश प्रकट हुए हर्ष, ईर्षा, उद्वेग, दैन्य और आर्ति आदि भावों से मिश्रित प्रलाप को भाग्यवान पुरुष ही श्रवण कर पाते हैं। (श्री चैतन्यचरि. अ. ली. 20।1)