श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी51. अद्वैताचार्य को श्यामसुन्दररूप के दर्शन
प्रेम में छोटेपन का भाव ही नहीं रहता। प्रेमी अपने प्रिय को सदा बड़ा ही समझता है। भगवान भक्तप्रिय हैं। जहाँ भक्त उन्हें अपना सर्वस्व समझते हैं, वहाँ वे भी भक्त को अपना सर्वस्व समझते हैं। भक्त के प्रति श्रद्धा का भाव प्रदर्शित करते हुए भगवान स्वयं कहते हैं- ‘मैं भक्तों के पीछे-पीछे इस कारण फिरा करता हूँ कि उनकी पदधूलि उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और उससे मैं पावन हो जाऊँ।’ जगत को पावन बनाने वाले प्रभु के ये भाव हैं। भक्त उनका दिन-रात्रि भजन करते हैं, वे भी कहते हैं- ‘जो मेरा जिस रूप में भजन करता है, मैं भी उसका उसी रूप से भजन करता हूँ।’ विश्व के एकमात्र भजनीय भगवान की लीला तो देखिये। प्रेम का कैसा अनोखा दृष्टान्त है। जो विश्वम्भर है, चर-अचर सभी प्राणियों का जो सदा पालन-पोषण करते हैं, जिनके संकल्पमात्र से सम्पूर्ण विश्व तृप्त हो सकता है, वे कहते हैं जो कोई मुझे भक्ति से कुछ दे देता है उसे ही मैं प्रसन्न होकर खा लेता हूँ। पत्ता खाने की चीज नहीं है, फूल सूँघने की वस्तु है और जल पीने की, अन्न या फल ही खाये जाते हैं। प्रेम में पागल हुए भगवान कहते हैं- ‘यदि मुझे कोई भक्ति-भाव से पत्र, पुष्प, फल अथवा जल ही दे देता है तो मैं उसे बहुत ही अमूल्य वस्तु समझकर सन्तुष्ट मन से खा जाता हूँ। पत्ते और फूलों को भी खा जाते हैं, सबके लिये ‘अश्नामि’ इसी क्रिया का प्रयोग करते हैं। धन्य है, ऐसे खाने को! क्यों न हो, प्रेम में ये पार्थिव पदार्थ ही थोड़े खाये जाते हैं, असली तृप्ति का कारण तो उन पदार्थों में ओत-प्रोतभाव से भरा हुआ प्रेम है, उस प्रेम को ही खाकर प्रभु परम प्रसन्न होते हैं। प्रेम है ही ऐसी वस्तु! उसका जहाँ भी समावेश हो जायगा वही पदार्थ सुखमय, मधुमय, आनन्दमय और तृप्तिकारक बन जायगा। उस दिन संकीर्तन के अनन्तर दूसरे-तीसरे दिन फिर अद्वैताचार्य शान्तिपुर को ही चले गये। उनके मन में अब भी प्रभु के प्रति संदेह के भाव बने हुए थे। उनका मन अब भी दुविधा में था कि ये हमारे इष्टदेव ही हैं या और कोई। इसीलिये एक दिन संशयबुद्धि से वे फिर नवद्वीप पधारे। वैसे उनका हृदय प्रभु की ओर स्वतः ही आकर्षित हो गया था, उन्हें महाप्रभु की स्तुतिमात्र से परमानन्द प्रतीत होता था। भीतर से बिना विश्वास के ऐसे भाव हो ही नहीं सकते, किंतु प्रकट में वे अपना अविश्वास ही जताते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपने प्रेमी को मान-सम्मान तथा जो वस्तु अपने को अत्यन्त प्रिय प्रतीत होती हो उसे प्रदान करना, उसकी दी हुई वस्तुओं को प्रेम से ग्रहण करना अपनी गोप्य से भी गोप्य बातों को उसके सम्मुख प्रकट करना तथा उससे उसके हृदय की आन्तरिक बातों को पूछना, स्वयं उसके यहाँ भोजन करना और उसे खूब प्रेम के साथ अपने हाथों से भोजन कराना- ये छ: प्रीति के लक्षण बताये गये हैं। सु. र. भां. 166/306