श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी53. निमाई और निताई की प्रेम-लीला
अवतीर्णों सकारुण्यौ परिच्छिन्नौ सदीश्वरौ। आनन्द का मुख्य कारण है आत्मसमर्पण। जब तक मनुष्य किसी के प्रति सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण नहीं कर देता, तब तक उसे पूर्ण प्रेम की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। प्रभु विश्वम्भर तो चराचर में व्याप्त हैं। अपूर्णभाव से नहीं, सभी स्थानों में वे अपनी पूर्ण शक्तिसहित ही स्थित हैं, जहाँ तुम्हारा चित्त चाहे, जिस रूप में मन रमे, उसी के प्रति आत्मसमर्पण कर दो। अपनेपन को एकदम मिटा दो। अपनी इच्छा, अपनी भावना और अपनी सभी चेष्टाएँ प्यारे के ही निमित्त हों। सब तरह से किसी के होकर रहो, तभी प्रेम का यथार्थ मर्म सीख सकोगे। किसी कवि ने क्या ही बढ़िया बात कही है- न हम कुछ हँसके सीखे हैं, न हम कुछ रोके सीखे हैं। अहा, किसी के होकर रहने में कितना मजा है, अपनी सभी बातों का भार किसी के ऊपर छोड़ देने में कैसा निश्चिन्तताजन्य सुख है, उसे अपने को ही कर्ता मानने वाला पुरुष कैसे अनुभव कर सकता है? जिसे अपने हाथ-पैरों से कमाकर खाने का अभिमान है, वह उस छोटे शिशु के सुख को क्या समझ सकता है, जिसे भूख-प्यास तथा सुख-दुःख में एकमात्र माता की क्रोड का ही सहारा है और जो आवश्यकता पड़ने पर रोने के अतिरिक्त और कुछ जानता ही नहीं? माता चाहे कहीं भी रहे, उसे अपने उस मुनमुना से बच्चे का हर समय ध्यान ही बना रहता है, उसके सुख-दुःख का अनुभव माता स्वयं अपने शरीर में करती है। नित्यानन्द जी ने भी प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया और महाप्रभु श्रीवास के भी सर्वस्व थे। प्रभु दोनों के ही उपास्यदेव थे, किंतु नित्यानन्द तो उनके बाहरी प्राण ही थे। नित्यानन्दजी श्रीवास पण्डित के ही घर रहते। उनकी पत्नी मालिनीदेवी तथा वे स्वयं इन्हें पुत्र से भी बढ़कर प्यार करते। नित्यानन्द जी सदा बाल्यभाव में ही रहते। वे अपने हाथ से भोजन नहीं करते, तब मालिनी देवी अपने हाथों से इन्हें भात खिलातीं। कभी खाते-खाते ही बीच में से भाग जाते, और दाल-भात को सम्पूर्ण शरीर पर लपेट लेते। भोजन करके बालकों की भाँति घूमते रहना ही इनका काम था। कभी मुरारी गुप्त के घर जाते, कभी गंगादास जी की पाठशाला में ही जा बैठते। कभी किसी के यहाँ से कोई चीज ही लेकर खाने लगते। कभी महाप्रभु के ही घर जाते और बाल्यभाव से शचीमाता के पैरों को पकड़ लेते। माता इनकी चंचलता से डरकर कभी-कभी भीतर घर में भाग जाती। इस प्रकार ये भक्तों के घरों में नाना भाँति की बाल्यलीलाओं का अभिनय करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राणियों के प्रति अपनी अहैतु की कृपा को ही प्रकट करने के निमित्त ईश्वर होनेपर भी जो दोनों भिन्न भाव से पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं, उन निमाई और निताई दोनों भाइयों की हम चरण-वन्दना करते हैं। श्रीमुरारिगुप्तस्य