श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
मुरारी रामोपासक थे। प्रभु उनकी ऐकान्ति की निष्ठा से पुर्णरीत्या परिचित थे। भक्तों को उनका प्रभाव जताने के निमित्त प्रभु ने एक दिन उनसे एकान्त में कहा- ‘मुरारी! यह बात बिलकुल ठीक है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों एक ही हैं। उन्हीं भगवान के अनन्त रूपों में से ये भी हैं। भगवान के किसी भी नाम तथा रूप की उपासना करो, अन्त में सबका फल प्रभु-प्राप्ति ही है, किंतु श्रीरामचन्द्र जी की लीलाओं की अपेक्षा श्रीकृष्ण-लीलाओं में अधिक रस भरा हुआ है। तुम श्रीराम रूप की लीलाओं की अपेक्षा श्रीकृष्ण-लीलाओं का आश्रय ग्रहण क्यों नहीं करते? हमारी हार्दिक इच्छा है कि तुम निरन्तर श्रीकृष्ण-लीलाओं का ही रसास्वादन किया करो। आज से श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व समझकर उन्हीं की अर्चा-पूजा तथा भजन-ध्यान किया करो।‘ प्रभु की आज्ञा मुरारी ने शिरोधार्य कर ली। पर उनके हृदय में खलबली-सी मच गयी। वे जन्म से ही रामोपासक थे। उनका चित्त तो रामरूप में रमा हुआ था, प्रभु उन्हें कृष्णोपासना करने के लिये आज्ञा देते हैं। इसी असमंजस में पड़े हुए वे रात्रि भर आंसू बहाते रहे। उन्हें क्षणभर के लिये भी नींद नहीं आयी। पूरी रात्रि रोते-रोते ही बितायी। दूसरे दिन उन्होंने प्रभु के समीप जाकर दीनता और नम्रता के साथ निवेदन किया- ‘प्रभो! यह मस्तक तो मैंने राम को बेच दिया है। जो माथा श्रीराम के चरणों में बिक चुका है, वह दूसरे किसी के सामने कैसे नत हो सकता है? |