श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
85. शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर
नित्यानंद जी की इस बात से माता को संतोष हुआ, वह बड़े कष्ट के साथ उठी और उठकर स्नान किया। फिर विधिवत भोजन बनाया। भोजन बनाकर भगवान भोग लगाया और नित्यानंद जी के लिये परोसकर उनसे भोजन करने के लिये कहा।
नित्यानंद जी के आग्रह के साथ दृढ़ता दिखाते हुए कहा- ‘पहले माता कर लेंगी तब मैं भोजन करूँगा।’
माता ने कहा- ‘बेटा! मेरे भोजन को तो निमाई साथ ले गया। अब वही जब करावेगा तब भोजन करूँगी। उसके बिना देखे मुझे भोजन भावेगा ही नहीं।‘
नित्यानंद जी ने कहा- ‘तुम्हारा एक बेटा निमाई तो शांतिपुर है, दूसरा बेटा तुम्हारे सामने है। तुम अब भी भोजन न करोगी, तो मैं भी नहीं करता। मैं माता को बिना खिलाये भोजन कर ही नहीं सकता।’
माता ने कुछ आग्रह के स्वर में कहा- ‘पहले तू कर तो ले, तब मैं भी करूंगी। बिना मुझे खिलाये मैं कैसे खा सकती हूँ?
नित्यानंद जी ने प्रेमपूर्वक बच्चों की भाँति कहा-‘हाँ, यह बात नहीं है, मैं तो तुम्हें करा के ही भोजन करुँगा। अच्छा, तुम मेरी शपथ खाकर कह दो कि मेरे कर लेने के पश्चात् तू भी भोजन कर लोगी।’
नित्यानन्द जी के अत्यन्त आग्रह करने पर माता ने भोजन करना स्वीकार कर लिया। तब नित्यानन्द जी ने प्रेमपूर्वक माता के हाथ का बना हुआ प्रसाद पाया। उनके भोजन कर लेने के उपरान्त माता ने विष्णुप्रिया जी को भी आग्रहपूर्वक भोजन कराया और स्वयं भी दो-चार ग्रास खाये। किन्तु उनके मुख में अन्न जाता ही नहीं था। जैसे-तैसे करके उन्होंने थोड़ा भोजन किया।
माता के भोजन कर लेने के अनन्तर नित्यानन्द जी ने चन्द्रशेखर तथा श्रीवास आदि भक्तों से कहा- ‘आप लोग पालकी का प्रबन्ध करके माता को साथ लेकर अद्वैताचार्य के घर शान्तिपुर आवें। तब तक मैं आगे चलकर देखता हूँ कि प्रभु पहुँचे या नहीं। भक्तों ने नित्यानन्द जी की बात को स्वीकार किया। वे शान्तिपुर की तैयारियाँ करने लगे। इधर उतावले अवधूत नित्यानन्द जी जल्दी से दौड़ते हुए शान्तिपुर पहुँचे।
अद्वैताचार्य के घर पहुँचकर नित्यानन्द जी ने देखा प्रभु अभी तक वहाँ नहीं पहुँचे, तब उन्होंने आचार्य से पूछा- ‘क्या प्रभु यहाँ नहीं आये?’ प्रभु के आगमन की बात सुनकर अद्वैताचार्य प्रेम में गद्गद हो उठे। रुंधे हुए कण्ठ से उन्होंने कहा- ‘क्या प्रभु इस दीन-हीन कंगाल के ऊपर कृपा करेंगे? क्या प्रभु अपनी चरण-धूलि से इस अकिंचन के घर को पावन बनावेंगे?’
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