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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
75. संन्यास से पूर्व
प्रभु इन्हीं भावों में मग्न थे कि इतने में ही कटवा में रहने वाले दण्डी स्वामी केशव भारती महाराज नवद्वीप पधारे। समय के प्रभाव से आज कल तो सभी प्राचीन व्यवस्था नष्ट हो गयी; किंतु हम जब की बात कह रहे हैं उस समय ऐसी परिपाटी थी कि दण्डी संन्यासी किसी भी गृहस्थ के द्वार पर पहुँच जाय, वही गृहस्थ उठकर उनका सत्कार करता और उनसे श्रद्धा-भक्ति के सहित भिक्षा कर लेने के लिये प्रार्थना करता।
दसनामी संन्यासियों में तीर्थ, सरस्वती और आश्रम- इन तीनों को दण्ड धारण करने का अधिकारी है। भारतीयों को भी दण्ड का अधिकार है, किंतु दण्डी सम्प्रदाय में उनका आधा दण्ड समझा जाता है। शेष गिरी, पुरी, वन, अरण्य तथा पर्वत आदि छ: प्रकार के संन्यासियों को दण्ड का अधिकार नहीं है।[1]दण्ड ब्राह्मण ही ले सकता है। इसलिये दण्डी संन्यासी ब्राह्मण ही होते हैं। केशव भारती दण्डी ही संन्यासी थे। पीछे इनकी शिष्य-परम्परा में इनके उत्तराधिकारी गृहस्थी बन गये जो कटवा के समीप अब भी विद्यमान हैं।
भारती को देखते ही प्रभु ने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया। भारती इनके शरीर में ऐसे अपूर्व प्रेम के लक्षणों को देखकर एकदम भौंचक्के-से रह गये। इनकी नम्रता, शालीनता और सुशीलता से प्रसन्न होकर भारती प्रेम में विभोर हुए कहने लगे- ‘आप या तो नारद हैं या प्रह्लाद, आप तो मूर्तिमान प्रेम ही दिखायी पड़ते है।’
भारती के मुख से ऐसी बात सुनकर प्रभु प्रेम में विभोर हो गये और भारती के पैरों को पकड़कर गद्गद-कण्ठ से कहने लगे- ‘आप साक्षात ईश्वर हैं, आप नररूप में नारायण हैं। आज मुझ गृहस्थी के घर को पावन बनाइये और मेरे ऊपर कृपा कीजिये, जिससे मैं संसार-बन्धन से मु्क्त हो सकूँ।’
भारती ने कहा- ‘आपके सम्पूर्ण शरीर में भगवत्ता के चिह्न हैं। आप प्रेम के अवतार हैं, मुझे तो आपके दर्शन से भगवान के दर्शन का-सा सुख अनुभव हो रहा है।’
प्रभु ने भारती की स्तुति करते हुए कहा- ‘आप तो भगवान के प्यारे हैं, आपके हृदय में भगवान सदा निवास करते हैं। आपके नेत्रों में श्रीकृष्ण की छाया सदा छायी रहती है। इसीलिये चराचर विश्व में आप भगवान के ही दर्शन करते हैं।’
इस प्रकार इन दोनों महापुरुषों में बहुत देर तक प्रेम की बातें होती रहीं। एक-दूसरे के गुणों पर आसक्त होकर एक-दूसरे की स्तुति कर रहे थे। अनन्तर शचीमाता ने भोजन तैयार किया। प्रभु ने श्रद्धापूर्वक भारती जी को भिक्षा करायी। दूसरे दिन भारती जी गंगा-किनारे अपने आश्रम को ही फिर लौट गये। मानो वे प्रभु को संन्यास का स्मरण दिलाने के ही लिये आये हों।
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