श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी75. संन्यास से पूर्व
संदर्शनं विषयिणामथ योषितां च। अर्थात ‘विषयी लोगों का तथा कामिनियों का दर्शन भी विष-भक्षण से बढ़कर है।’ अहा! ऐसा त्याग का सजीव उदाहरण और कहाँ मिल सकता है? महाप्रभु ने सचमुच में महान त्याग की पराकाष्ठा करके दिखा दी। उनके पथ के अनुयायी अन्तरंग भक्त जीव, सनातन, रूप, रघुनाथदास, प्रबोधानन्द, स्परूप दामोदर, हरिदास, गोपाल भट्ट, लोकनाथ गोस्वामी एक-से-एक बढ़कर परम त्यागी संन्यासी थे। इनका त्याग और वैराग महाप्रभु के परम त्यागमय भावों का एक उज्ज्वल आदर्श है। रूप स्वामी के लिये तो यहाँ तक सुना जाता है, कि वे एक दिन से अधिक एक वृक्ष के नीचे भी नहीं ठहरते थे। व्रजवासियों के घर से टुकडे़ माँग लाना और रोज किसी नये वृक्ष के नीचे पड़ रहना। धन्य है उनके त्याग का और उनके भक्ति को! भगवान के अन्तरंग भक्त उद्धव, विदुर दोनों ही संन्यासी हुए। परम संन्यासिनी गोपिकाओं से बढ़कर त्याग का आदर्श कहाँ मिल सकता है? उद्धव, विदुर और गोपिकाओं ने यद्यपि लिंग-संन्यास नहीं लिया था, क्योंकि लिंग-संन्यास का विधान शास्त्रों में प्राय: ब्राह्मण के लिये ही पाया जाता है, किंतु तो भी ये घर-बार को छोड़कर अलिंग-संन्यासी ही थे। महाप्रभु भला घर में कैसे रह सकते थे? उनके मन में संन्यास लेने के भाव प्रबलता के साथ उठने लगे। वे मन-ही–मन सोचने लगे कि- ‘अब हम जब तक संन्यासी बनकर और मूँड़ मुड़ाकर घर-घर भिक्षा नहीं माँगेंगे तब तक न तो हमारी आत्मा को पूर्ण शान्ति प्राप्त होगी और न हमारे इन विरोधियों का ही उद्धार होगा। हम इन विरोधियों का उद्धार अपने महान त्याग द्वारा ही कर सकेंगे। ये हमारी बढ़ती हुई कीर्ति से डाह करके ऐसे भाव रखने लगे है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाप्रभु-वाक्य