श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी4. भक्त-वन्दना
जिन्होंने पिता का प्रिय करने के निमित्त आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया, जो अपनी प्रतिज्ञापालन के निमित्त अपने गुरु परशुराम जी से भी भिड़ गये, जिन्होंने पिता को प्रसन्न करके इच्छामृत्यु का अमोघ वरदान प्राप्त किया, जिनकी प्रतिज्ञा पूरी करने के निमित्त साक्षात भगवान ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी, उन गंगा के पुत्र वसु-अवतार महात्मा भीष्म पितामह के आशीर्वाद की मैं इच्छा करता हूँ। परम भागवत और परम वैष्णव दाल्भ्य ऋषि के चरणकमलों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जिन्होंने एकादशी व्रत के माहात्म्य को सम्पूर्ण पृथ्वी पर स्थापित किया, जिनके धर्म के कारण स्वयं धर्मराज भी भयभीत होकर पितामह की शरण में गये ओर उन्हें धर्मच्युत कराने के निमित्त अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त ‘मोहिनी’ नाम की एक सुन्दरी को भेजा, जिन्होंने मोहिनी के आग्रह करने पर अपने इकलौते प्यारे पुत्र का सिर देना तो मंजूर किया किन्तु एकादशी व्रत नहीं छोड़ा, उन राजर्षि रूक्मांगद के प्रति मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। जो भगवान के परम अन्तरंग सखा गिने जाते हैं, भगवान की प्रेमपाती लेकर जो वृन्दावन की गोपिकाओं को ज्ञानोपदेश करने गये थे और वहाँ से परम वैष्णव होकर लौटे थे, जो भगवान के तिरोभाव होने पर उनकी आज्ञा से नर-नारायण के क्षेत्र में योगसमाहित हुए थे, उन परम भागवत उद्धव जी के चरणों में मेरा अधिकाधिक अनुराग हो। जो अन्यायी भाई का पक्ष छोड़कर भगवान रामचन्द्रजी के शरणापन्न हुए और अन्त में लंकाधिपति बने, उन श्री रामचन्द्र जी के प्रियसखा अमर भक्त विभीषण को मैं नत होकर अभिवादन करता हूँ। जिनका सारथ्य महाभारत के युद्ध में स्वयं भगवान ने किया, जो इसी शरीर से स्वर्ग में वास कर आये, जिन्होंने शंकर जी से युद्ध करके उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्त किया, जिन्होंने अकेले गाण्डीव धनुष से अठारह अक्षौहिणी वाले महाभारत में विजय प्राप्त कर ली। युद्ध से पराड्मुख होने पर जिन्हें भगवान ने स्वयं गीता का उपदेश दिया, जो भगवान के विहार, शय्या, आसन और भोजनों में सदा साथ-ही-साथ रहे, जिन्हें भगवान बड़े प्रेम से ‘हे पार्थ! हे सखा! है धनंजय!’ ऐसे सुन्दर सम्बोधनों से सम्बोधित करते थे, वे नरावतार श्रीअर्जुन जी मेरे ऊपर कृपा की दृष्टि करें। बौद्धों के नास्तिकवाद को मिटाकर जिन्होंने निर्विशेष ब्रह्म का व्याख्यान किया। जिन्होंने जगत के प्रपंचों को मिथ्या बताकर एकमात्र ब्रह्म को ही साध्य बताया। अभेदवाद को सिद्ध करते हुए भी जिन्होंने समुद्र की तरंगों की भाँति अपने को प्रभु का दास बताया, उन आचार्यप्रवर भगवान शंकराचार्य के चरणों में मेरा शत-शत प्रणाम है। जिन्होंने भक्तिमार्ग को सर्वसाधारण के लिये सुलभ बना दिया, जो जीवों के कल्याण के निमित्त स्वयं नरक की यातनाएँ सहने के लिये तत्पर हो गये। |