श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- स्वतन्त्र साधन होने पर भी दोनों में जो सुगमता और कठिनता का भेद है, उसी को स्पष्ट करने के लिये भगवान् ने ऐसा कहा है। मान लीजिये, एक मुमुक्ष पुरुष है और वह यह मानता है कि ‘समस्त दृश्य-जगत् स्वप्न के सदृश मिथ्या है, एकमात्र ब्रह्म ही सम्य है। यह सारा प्रपंच माया से उसी ब्रह्म में अध्यारोपित है। वस्तुतः दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं; परंतु उसका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, उसमें राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादि दोष वर्तमान हैं। वह यदि अन्तःकरण की शुद्धि के लिये कोई चेष्टा न करके केवल अपनी मान्यता के भरोसे पर ही सांख्ययोग के साधन में लगना चाहेगा तो उसे दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से तीसवें तक में और अठारहवें अध्याय के उनचासवें श्लोक से पवपनवें तक में बतलायी हुई ‘सांख्यनिष्ठा’ सहज ही नहीं प्राप्त हो सकेगी। क्योंकि जब तक शरीर में अहंभाव है, भोगों में ममता है और अनुकूलता-प्रतिकूलता में राग-द्वेष वर्तमान हैं, तब तक ज्ञाननिष्ठा का साधन होना अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों में कर्तृत्वाभिमान से रहित होकर निरन्तर सच्चिदानन्दघन निर्गुण निराकार ब्रह्म के स्वरूप में अभिन्नभाव से स्थित रहना तो दूर रहा, इसका समझ में आना भी कठिन है। इसके अतिरिक्त अन्तःकरण अशुद्ध होने के कारण मोहवश जगत् के नियन्त्रणकर्ता और कर्मफलदाता भगवान् में और स्वर्ग-नरकादि कर्मफलों में विश्वास न रहने से उसका परिश्रम-साध्य शुभकर्मों को त्याग देना और विषयासक्ति आदि दोषों के कारण पापमय भोगों में फँसकर कल्याण मार्ग से भ्रष्ट हो जाना भी बहुत सम्भव है। अतएव इस प्रकार की धारणा वाले मनुष्य के लिये, जो सांख्य योग को ही परमात्म-साक्षात्कार का उपाय मानता है, यह परम आवश्यक है कि वह सांख्ययोग के साधन में लगने से पूर्व निष्काम भाव से यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मों का आचरण करके अपने अन्तःकरण को राग-द्वेषादि दोषों से रहित परिशुद्ध कर ले, तभी उसका सांख्य योग का साधन निर्विघ्नता से सम्पादित हो सकता है और तभी उसे सुगमता के साथ सफलता भी मिल सकती है। यहाँ इसी अभिप्राय से कर्मयोग के बिना संन्यास का प्राप्त होना कठिन बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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