श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से कर्म करने वाला मनुष्य किसी प्रकार के भी कर्मों के फल का हेतु नहीं बनता। उसके शुभ और अशुभ सभी कर्मों में फल देने की शक्ति का अभाव हो जाता है; क्योंकि पापकर्मों में प्रवृत्ति का हेतु आसक्ति ही है, अतः आसक्ति, ममता और कामना का सर्वथा अभाव हो जाने के बाद नवीन पाप तो उससे बनते नहीं और पहले के किये हुए पाप ममता, आसक्तिरहित कर्मों के प्रभाव से भस्म हो जाते हैं। इस कारण वह पापकर्मों के फल का हेतु नहीं बनता और शुभ कर्मों के फल का वह त्याग कर देता है, इस कारण उनके भी फल का हेतु नहीं बनता। इस प्रकार कर्म करने वाले मनुष्य के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं[1] और वह अनामय पद को प्राप्त हो जाता है।[2] प्रश्न- तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार शास्त्रविहित कर्मों से विपरीत निषिद्ध कर्मों का आचरण करना कर्माधिकार का दुरुपयोग करना है, उसी प्रकार वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसके लिये जो अवश्य कर्तव्य है, उसका न करना भी उस अधिकार का दुरुपयोग करना है। विहित कर्मों का त्याग किसी प्रकार भी न्याय संगत नहीं है। अतः इनका मोहपूर्वक त्याग करना तामस त्याग है[3] और शारीरिक क्लेश के भय से त्याग करना राजस त्याग है।[4] विहित कर्मों का अनुष्ठान बिना किये मनुष्य कर्म योग की सिद्धि को भी नहीं पा सकता[5], अतः तुम्हारी किसी भी कारण से विहित कर्मों का अनुष्ठान न करने में आसक्ति नहीं होनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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