अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- अब राजस ज्ञान के लक्षण बतलाते हैं-
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।। 21 ।।
किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान ।। 21 ।।
प्रश्न- सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानना क्या है?
उत्तर- कीट, पतंग, पशु, पक्षी, मनुष्य, राक्षस और देवता आदि जितने भी प्राणी हैं- उन सबमें आत्मा को उनके शरीर की आकृति के भेद से और स्वभाव के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक और अलग-अलग समझना-अर्थात् यह समझना कि प्रत्येक शरीर में आत्मा अलग-अलग है और वे बहुत हैं तथा सब परस्पर विलक्षण हैं- यही सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग देखना है।
प्रश्न- उस ज्ञान को तू राजस जान- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त प्रकार का जो अनुभव है, वह राजस ज्ञान है- अर्थात् नाममात्र का ही ज्ञान है, वास्तविक ज्ञान नहीं है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार आकाश के तत्त्व को न जानने वाला मनुष्य भिन्न-भिन्न घट, मठ आदि में अलग-परिच्छिन्न आकाश समझता है और उसमें स्थित सुगन्ध-दुर्गन्धादि से उसका सम्बन्ध मानकर एक से दूसरे को विलक्षण समझता है; किन्तु उसका यह समझना भ्रम है। उसी प्रकार आत्म-तत्त्व को न जाने के कारण समस्त प्राणियों के शरीर में अलग-अलग और अनेक आत्मा समझना भी भ्रममात्र है।
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