सप्तदश अध्याय
सम्बन्ध- अब राजस दान के लक्षण बतलाते हैं-
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।। 21 ।।
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया ।। 21 ।।
प्रश्न- ‘तु’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- यहाँ ‘तु’ का प्रयोग सात्त्विक दान से राजस दान का भेद दिखलाने के लिये किया गया है?
प्रश्न- क्लेशपूर्वक दान देना क्या है?
उत्तर- किसी के धरना देने, हठ करने या भय दिखलाने अथवा प्रतिष्ठित और प्रभावशाली पुरुषों के कुछ दबाब डालने पर बिना ही इच्छा के मन में विषाद और दुःख का अनुभव करते हुए निरुपाय होकर जो दान दिया जाता है, वह क्लेशपूर्वक दान देना है।
प्रश्न- प्रत्युपकार के लिए दान देना क्या है?
उत्तर- जो मनुष्य बराबर अपने काम में आता है या आगे चलकर जिससे अपना कोई छोटा या बड़ा काम निकालने की सम्भावना या आशा है, ऐसे व्यक्ति को दान देना वस्तुतः सच्चा दान नहीं है; वह तो बदला पाने के लिये दिया हुआ बयाना-सा है। जिस प्रकार आजकल सोमवती अमावस्या- जैसे पर्वों पर अथवा अन्य किसी निमित्त से दान का संकल्प करके ऐसे ब्राह्मणों को दिया जाता है, जो अपने या अपने सगे-सम्बन्धी अथवा मित्रों के काम में आते हैं तथा जिनसे भविष्य में काम करवाने की आशा है या ऐसी संस्थाओं को या संस्थाओं के संचालकों को दिया जाता है, जिनसे बदले में कई तरह के स्वार्थ-साधन की सम्भावना होती है- यही प्रत्युपकार के उद्देश्य से दान देना है।
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