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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
17. शकुनि का कपट-द्यूत
राजा धृतराष्ट्र ही आज्ञा से विदुर युधिष्ठिर के समीप गए। उनका मन कुढ़ रहा था; क्योंकि उनको बलपूर्वक इस काम में नियुक्त किया गया था। युधिष्ठिर ने उचित सत्कारपूर्वक पूछा, “हे विदुर‚ आपका मन प्रसन्न नहीं जान पड़ता। सब कुशल से तो हैं? धृतराष्ट्र के पुत्र तो उनके अनुकूल हैं? प्रजाएं तो वश में हैं?” विदुर ने उत्तर दिया, “महात्मा धृतराष्ट्र पुत्रों के साथ कुशल से हैं। उन्होंने आपकी कुशल पूछी है और कहा है, ‘तुम्हारी सभा के जैसी ही हमारी सभा तैयार हो गई है। उसे आकर देखो। थोड़ा सुहृद-द्यूत भी यहाँ करके मन-बहलाव करो। आपके आने से हम सब प्रसन्न होंगे।’ इसलिए मैं यहाँ आया हूँ। वहाँ धृतराष्ट्र ने जो पांसे बनवाए हैं और वहाँ जो कितव (धूर्त्त जुआरी) आये होंगे, उन्हें भी चलकर देखना होगा।” युधिष्ठिर ने कहा, “मुझे द्यूत में कलह दिखाई पड़ता है, जानबूझ कर इसके लिए कौन तैयार होगा? आप क्या ठीक समझते हैं? हम सबके लिए आपका वचन प्रमाण है।” विदुर ने कहा, “मेरी राय में जुआ अनर्थ की जड़ है। मैंने इसे रोकने का यत्न किया, फिर भी राजा ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। तुम विद्वान हो, आज्ञा सुनकर जो ठीक हो, करो।” युधिष्ठिर ने पूछा, “धृतराष्ट्र के पुत्रों के अतिरिक्त वहाँ कौन-कौन से कितव आए हैं, जिनसे हमें खेलना होगा?” विदुर ने कहा, “गांधारराज शकुनि मंजे हुए खिलाड़ी हैं, अक्ष-विद्या के उस्ताद हैं, सदा जीत का दांव फेंकते हैं और भी विविंशति, चित्रसेन आदि हैं।” ये नाम सुनकर युधिष्ठिर अनिष्ट के भय से कांप गए। उन्होंने कहा, “वहाँ भयंकर छलिया और कपटी खिलाड़ी आए हैं। विधाता की आज्ञा के वश में सब कुछ है। मेरा मन नहीं कि उन धूर्तों के साथ द्यूत करूं, साथ ही धृतराष्ट्र के शासन से न जाऊं, यह भी नहीं चाहता। पुत्र को सदा पिता की मर्यादा रखनी चाहिए। इसलिए हे विदुर, जैसा कहते हो, चलता हूँ। यदि मुझे सभा में कोई चुनौती न देगा तो शकुनि से खेलने की मेरी इच्छा नहीं। लेकिन मेरा यह सदाव्रत है कि आहूत होने पर मुंह न मोड़ूँगा।” यह कहकर धर्मराज अगले दिन भाईयों और द्रौपदी-सहित विदुर के साथ चल दिये। वे हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र-भवन में पहुँचे और वहाँ सबसे मिलकर गान्धारी से मिले। धृतराष्ट्र की बहुएं द्रौपदी की उस दीप्त शोभा को देखकर मन में प्रसन्न नहीं हुईं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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