विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
श्वेताश्वतर उपनिषद में दस वादों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि तत्त्वचिन्तकों ने सत्य की खोज के लिए ध्यान योग का आश्रय लिया (ते ध्यानयोगान् गतानुपश्यन)। यान योग उस युग की सर्वसम्मत साधना विधि थी। यहाँ अध्याय 188 में ध्यान योग का विवेचन किया गया है। ध्यान योग, ज्ञान योग, इन्द्रियसंयम योग, निर्वाण या मोक्ष योग- ये सब योग के अवान्तर भेद थे। साधक को योगवित् या योगी कहा गया है। ध्यान योग में लेखक की सबसे अधिक रुचि ज्ञात होती है। हठयोग, आसन, प्राणायाम का यहाँ कोई उल्लेख नहीं है। अध्याय 228, 232, 243, 289, 294, 304, 305 में कुछ सामग्री अवश्य है, पर विशेष साधना का वर्णन नहीं है। अध्याय 294 में प्राणायाम का उल्लेख किया गया है और अध्याय 304 में अष्टगुणित योग या अष्टांग योग और उसके प्राणायाम आदि अंगों का नाममात्र उल्लेख आया है। कोई साधना विधि नहीं बताई गई है। इस प्रकार यद्यपि ध्यान-योग, ज्ञान-योग, मोक्ष-योग, और इन्द्रियदमन योग के प्रति मोक्षधर्म में पर्याप्त वर्णन पाया जाता है, किन्तु हठयोग के विषय में वह मौन है। 89. जपयोग
अध्याय 189 से 194 तक जपयोग का विस्तृत वर्णन है। जप करने वाले को जापक और जिसका जप किया जाय उसे जप्य कहते थे। ज्ञात होता है कि वेद मन्त्र और संहिता का जप किया जाता था। सूर्य की शक्ति सावित्री को इष्ट देवता के रूप में प्रत्यक्ष मान कर जप का विधान था। जप का फल अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति माना जाता था। जपयोग की महिमा ध्यानयोग से कम न थी।[1] जप में श्रद्धा आवश्यक थी। कहा है कि जपकर्ता ब्राह्मण पर वेदमाता सावित्री प्रसन्न हुईं।[2] वेदमाता गायत्री की संज्ञा थी। अतः वेदमाता गायत्री का जप किया जाता था। किन्तु यह भी कहा गया है कि समस्त संहिता या उसके किसी भाग का भी जप होता है। जप के लिए ‘तूष्णीम्’ या मौन भाव आवश्यक था। विधिपूर्वक संहिता के अध्ययन या पारायण से जपयोग का विकास जान पड़ता है। पाणिनि ने छंदोध्यायी ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा है। उस युग में वेदपाठी ब्राह्मण दो भागों में बंट गए थे- एक निगदपाठी जो उच्च कण्ठ से पाठ करते थे, दूसरे तूष्णीपाठी जो जापक कहलाते थे। ब्राह्मण के मांगने पर सावित्री ने वरदान दिया कि जप के फलस्वरूप तुम्हें ब्रह्मस्थान की प्राप्ति होगी।[3] जप को एकाग्रधर्म कहा गया है। उसके लिए मनःसमाधि आवश्यक है। आगे कहानी दी गई है कि धर्म, यम, मृत्यु और काल मनुष्य रूप रखकर उस ब्राह्मण के पास आये और उससे अपनी-अपनी श्रेष्ठता के विषय में बहस करने लगे। धर्म ने उसे स्वर्ग भेजना चाहा, पर ब्राह्मण ने शरीर के बिना स्वर्ग जाना पसन्द नहीं किया।[4] इसकी व्यन्जना यह थी कि जप योग से शरीर रहते ही स्वर्ग का सुख मिल जाता है। तो काल, मृत्यु तथा यम इन तीनों ने कहा, “हे ब्राह्मण, तुम जप के रूप में उत्तम तप कर चुके, अब तुम्हें हम लेने आये हैं।” बहुत विवाद के बाद निश्चय हुआ कि वह स्वर्ग नहीं चाहता, पर जप के प्रभाव से वह ब्रह्मभूत, सुखी, शान्त और निरामय हो चुका है। जापक को वह अक्षरसंज्ञक अद्वितीय अजर और शान्त ब्रह्मस्थान प्राप्त हो जाता है। अन्तिम निष्कर्ष यह बताया गया है कि सब योगों का फल जपयोग के तुल्य है- जापकैस्तुल्यफलता योगानां नात्र संशयः।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 193। 22
- ↑ वेदमाता तस्तस्य तज्यप्यं समपूजयत्। 192।8
- ↑ प्रयाति संहिताध्यायी ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्। 192। 118
- ↑ सशरीरेण गन्तव्यो मया स्वर्गो न वा विभो। (192। 26)
- ↑ 193। 22
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