विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 108-116
दुर्वृत्त और दुरात्मा व्यक्ति के विषय में भीष्म का समाधान सुनकर युधिष्ठिर ने यह जानना चाहा कि अपने पुत्र-पौत्रों के सुख के लिए और अन्न-पान द्वारा अपने शरीर के सुख के लिए क्या करना चाहिए।[1] राष्ट्र कर वृद्धि का क्या उपाय है? मूर्धाभिषिक्त राजा को अपने मित्रों के साथ प्रजारंजन कैसे करना चाहिए? यदि वह शत्रुओं से घिरा हो, तो भी प्रजाओं को प्रसन्न करने का क्या उपाय है? जिसके भृत्य बिगड़ जाते हैं, उस राजा को भृत्यों द्वारा किये कार्यों से कोई लाभ नहीं होता। गुणयुक्त भृत्य कैसे होने चाहिए? क्योंकि बिना भृत्यों के अकेला राजा राज्य की रक्षा नहीं कर सकता। भीष्म ने उत्तर दिया, “जिसके भृत्य ज्ञान-विज्ञान में पण्डित, हितैषी, कुलीन और स्नेही होते हैं, वही राजा राज्य का फल प्राप्त करता है। जिसके मन्त्री कुलीन, सहवासी और हितकारी सलाह देने वाले होते हैं, वह राजा राज्य का फल पाता है। अनागत विपत्ति का पहले से ही प्रतिकार करने वाले, काल का ज्ञान रखने वाले, बीते हुए कष्टों का सोच न करने वाले मन्त्रियों को पाकर राजा राज्य का फल प्राप्त करता है। जिसके सहायक मन्त्री दुःख-सुख में समान रहते हैं, सत्य के अनुसार कार्य करने वाले और अर्थ की चिन्ता करने वाले होते हैं, वह राजा राज्य-फल भोगता है। जिसके जनपद में कोई दुःखी नहीं होता, जो अक्षुद्र और सत्पथ का आश्रय लेता है, वह राजा राज्य-फल पाता है। जिसके वित्ताधिकारी कोष की वृद्धि करते हैं, वह राजा उत्तम है। जिसके पुश्तैनी चले आ रहे आप्त पुरुष अलुब्ध और योग्य होकर कोष्ठागार में संचय बढ़ाते हैं, वह राजा गुणयुक्त होता है। जिसके नगर में सब व्यवहार ईमानदारी और सच्चाई से किये जाते हैं, जैसा शंख और लिखित दो भाइयों की कथा में मिलता है, वह राजा धर्म-फल का भागी होता है। जो धर्मवित्त राजा अच्छे मनुष्यों का संग्रह करता है और षड्वर्ग (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव एवं समाश्रय) का सेवन करता है, वह राज-धर्म का फल प्राप्त करता है।”[2] 81. राजभृत्यों के गुण-दोष
इसके अनन्तर एक बढ़िया कहानी के दृष्टान्त से बताया गया है कि दुष्ट के साथ कितना भी अच्छा व्यवहार करो, वह अपनी योनि के अनुकूल कुटिल स्वभाव को प्रकट करता ही है। वन में किसी ऋषि के आश्रम में एक कुत्ता रहता था। वह चीते से डरता था। ऋषि ने उसे चीता बना दिया। फिर क्रमशः ऋषि ने उसे बाघ, हाथी, शेर और अन्त में शरभ बना दिया। वह ऋषि पर ही झपटा, तब ऋषि ने फिर उसे कुत्ता बना दिया। इस भाँति ही दुष्ट भृत्यों का व्यवहार भी समझना चाहिए। यहाँ चौक्ष, नेता, नीतिकुशल, शक्तिशाली, मृदुवादी, धीर, महर्द्धि, देशकालोपपादक, शास्त्रविशारद, धर्मपरायण, प्रजापालन तत्पर, पवित्र, श्रोता, सुश्रूषु, ऊहापोह में पटु मेधावी, न्यायोपपादक, दान्त, प्रियभाषी, क्षमावान्, सुखदर्शन, आर्तजनों के सहायक, नयरत, नाहंवादी, निद्र्वन्द्व, भृत्यजनप्रिय, प्रसन्नवदन, दाता, सुमहामना, युक्तदण्ड, निर्दण्ड, धर्मकार्यानुशासक, चारनेत्र, धर्मार्थ-कुशल, योद्धा, मनुष्येन्द्र, सुपुरुष, समरशौटीर, कृतज्ञ, शास्त्रकोविद, अर्थवान विवृद्ध, मित्राढ्य आदि विशेषण राजा के लिए प्रयुक्त हुए हैं।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज