विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 196-206
33. प्रत्यक्ष धर्म की उदात्त कथाएँ
युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय से प्रश्न किया, ‘‘इक्ष्वाकु वंश में जो कुवलाश्व नामक राजा थे उनका नाम बदलकर धुन्धुमार क्यों पड़ गया?’’ मार्कण्डेय ने कहा, ‘‘मरुधन्व देश में उत्तंक मुनि ने अपने आश्रम में बहुत वर्षों तक विष्णु की अराधना करके उन्हें प्रसन्न किया। विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि तुम अपने तप के प्रभाव से बृहदश्व के पुत्र कुवलाश्व नामक राजा से धुन्धु नामक अश्व का नाश कराने में सफल होगें।’’ मार्कण्डेय ने कहा कि इक्ष्वाकु कुल में शशाद नामक राजा अयोध्या में हुआ। उसके बाद क्रमशः ककुत्स्थ, अनेना, पृथु, विष्वगश्व, आर्द्र, युवनाश्व, श्रावस्त (जिसने श्रावस्ती बसाई), बृहदश्व नामक राजा हुए। बृहदश्व ने अपने पुत्र कुवलाश्व को राज्य देकर वन की राह ली। उत्तंक ने आकर उससे कहा, ‘‘आप जंगल में क्यों जाते हैं? प्रजाओं के पालन में जो महान धर्म है, वैसा वन में कहाँ है? आप ऐसा विचार न करें। पहले राजर्षियों ने प्रजा-पालन को ही महान धर्म कहा है। मेरे आश्रम के पास बालू से भरा हुआ उज्जानक नाम का समुद्र है। उसमें धुन्धु नामक असुर रहता है, जिसके कारण में निर्विघ्न तप नहीं कर पाता। प्रतिवर्ष उसके निःश्वास की आँधी से इतनी धूल उठती है कि एक सप्ताह तक आदित्य का पथ भी छिप जाता है और भूकम्प-जैसा होने लगता है। वैष्णव तेज की सहायता से तुम उसका नाश करने में समर्थ हो। यह धुन्धु सृष्टि के आदि में होने वाले मधु कैटभ का पुत्र है, जो उस बालु का पूर्ण समुद्र में आकर बस गया है।’’ बृहदश्व ने कहा कि मैं इस समय अपने शस्त्रों का परित्याग कर चुका हूँ, आप मुझे वन जाने दें, किन्तु मेरा पुत्र कुवलाश्व उस दुष्ट का वध करेगा। उसके बाद कुवलाश्व ने उत्तंक के नारायणीय तेज की सहायता से उस असुर का वध करके धुन्धुमार पदवी प्राप्त की। इस उपाख्यान के अन्त में लिखा है, विष्णु के समनुकीर्तन रूप इस इस पवित्र उपाख्यान को जो सुनता है, वह धर्मात्मा, पुत्रवान, आयुष्य और धृति से युक्त हो जाता है और उसे व्याधि का भय नहीं रहता। यह फलश्रुति स्पष्ट ही इसके जोड़े जाने की सूचना देती है। राजस्थान की मरुभूमि की ओर वैष्णव भागवत धर्म का जो प्रचार हुआ, उसी को इस कथानक द्वारा सूचित किया गया है। रेगिस्तान के ठीक नुक्कड़ पर चित्तौड़ के पास नगरी नामक स्थान में वासुदेव और संकर्षण इन दो देवों की पूजा के लिए स्थापित नारायण वाटक नामक एक प्राचीन महास्थान या मन्दिर मिला है, जो लगभग दूसरी शती ईसा पूर्व का है। मथुरा और उसके चारों ओर शुंग काल में भागवत-धर्म का जो एक प्रभावशाली आन्दोलन उठा था, उसी का बाह्य मण्डलवर्ती केन्द्र प्राचीन मध्यमिका या नगरी का यह नारायण वाटक था। वहाँ तक भागवत धर्म के प्रसार का संकेत इस कथानक में है। यह भी संभव है कि धुन्धु नाम से पौरव वंश का एक राजा वंशावलियों में है, वह मरुभूमि का शासक था। अयोध्या के कुवलाश्व ने पौरव धुन्धु का वध किया, जिस कारण वह प्राचीन अनुश्रुति में धुन्धुमार कहलाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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