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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
अध्याय 291 में वसिष्ठ और कराल जनक के संवाद के रूप में क्षर और अक्षर विद्या का विवेचन किया गया है। भूतों की संज्ञा क्षर है और भूतों के धरातल पर प्रतिष्ठित आत्म चैतन्य की संज्ञा अक्षर है। इसे कूटस्थ भी कहते हैं। अध्याय 292 में लगभग 125 क्रियापथों की बड़ी सूची दी है। अध्याय 293 में कहा है कि प्रकृति-पुरुष या मात पिता के संयोग से इस देह की रचना होती है, जिसमें अनेक गुण और अवयव भरे रहते हैं, जिसका सूक्ष्म परिचय सांख्य और योग के द्वारा होता है। सांख्य और योग को जो एक जानता है, उसी का जानना अच्छा है- एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स बुद्धिमान्।[1] अक्षर एकत्व है और क्षर नानात्व है। ज्ञात होता है कि 24 तत्त्वों के अतिरिक्त सांख्य मत में 25वां जीवतत्त्व और 26वां ईश्वर तत्त्व भी माना जाने लगा था- पंचविंशतिसर्गं तु तत्त्वमाहुर्मनीषिणः।[2] यही गुप्तयुग का नया सेश्वर सांख्य था। अध्याय 292 से 296 तक वसिष्ठ और कराल जनक संवाद के रूप में मोक्ष, क्षर-अक्षर धर्म, दान-धर्म, मातृ-पितृ-गण कथन, अनित्योपदेश बुद्धिलक्षण- ये विषय हैं। अध्याय 297-298 में जनक के द्वारा सांख्य का ही विवेचन है। अध्याय 299 में जनक द्वारा काल का विवेचन है। सृष्टि का वर्णन करने के अनन्तर व्यक्त-अव्यक्त, निगुर्ण-सगुण, क्षर-अक्षर के प्रलय की अवस्था का भी चित्र खींचा गया है, जब सब मूर्तरूप सहस्रशीर्षा पुरुष में लीन हो जाते हैं।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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