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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 7-13
इधर विदुर के चले जाने के बाद धृतराष्ट्र उन्हें याद करके छटपटाने लगे। दौड़कर सभा के द्वार तक आये और विदुर को न पाकर लड़खड़ा कर गिर गए। उठाये जाने पर संजय से बोले, “हाय, मेरा भाई सुहृत, साक्षात धर्म, वह विदुर कहाँ गया? संजय, जाओ और उसका पता लगाओ। कहीं मुझसे अपमानित होकर वह अपना प्राण न त्याग दे! उसे मनाकर शीघ्र यहाँ ले आओ।” “अच्छा!” कहकर संजय भागे हुए काम्यक वन पहुँचे और वहाँ उन्होंने विदुर को पाण्डवों के साथ बैठे हुए देखा। पूछे जाने पर संजय ने कहा, “विदुर, धृतराष्ट्र तुम्हारे लिए व्याकुल हैं। उन्हें चलकर देखो और होश में लाओ।” यह सुनकर विदुर युधिष्ठिर की अनुमति से पुनः हस्तिनापुर लौट आये। मिलने पर धृतराष्ट्र आनन्द-विभोर होकर लिपट गए और बोले, “हे विदुर, तुम सचमुच आ गए! मैंने रोष से जो कहा, उसे क्षमा करो।” इस प्रकार के पिलपिले व्यक्ति से विदुर क्या कहते! बोले, “हे राजन, मैंने क्षमा किया। आप हममें बड़े हैं। इसी से मैं आपके दर्शन के लिए जल्दी लौट आया। धर्मचेता पुरुष दीनों की ओर झुकते हैं। पाण्डु के पुत्र और तुम्हारे पुत्र दोनों मेरे लिए एक-समान हैं। किन्तु पाण्डव दीन हैं, अतएव मेरा मन उनकी ओर झुकता है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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