विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 4
41. पाण्डवों का अज्ञातवास
वनवास के बारह वर्ष बीतने पर तेरहवां वर्ष पाण्डवों ने राजा विराट के यहाँ अज्ञातवास में बिताया, जिसकी कथा चौथे-विराट पर्व में दी गई है। इस पर्व के सरसठ अध्यायों में पाण्डवों का विराट नगर में आना, वेश बदलकर राजा की सभा में प्रवेश करना, कीचक-वध, कौरवों द्वारा विराट की गाएं पकड़ने के लिए आने पर अर्जुन का उनके साथ युद्ध, कौरवों की पराजय और अन्त में पाण्डवों के प्रकट होने पर अभिमन्यु का उत्तरा के साथ विवाह, ये ही कथा के मुख्य सूत्र हैं। उपाख्यानों के लिए यहाँ कोई अवसर न था। आरम्भ में महामना युधिष्ठिर ने अर्जन से पूछा कि तेरहवां वर्ष कहाँ बिताना चाहिए। अर्जुन ने कहा, ‘‘कुरु जनपद के चारों ओर जो दूर-दूर तक फैले हुए रमणीय और धनधान्यपूर्ण जनपद है, जैसे पांचाल, चेदि, मत्स्य, शूरसेन, पटच्चर, दशार्ण, नवराष्ट्र, मल्ल, शाल्व, युगन्धर आदि उनमें से जो आपको रुचे, वहीं एक वर्ष निवास किया जाय।’’ युधिष्ठिर ने इनमें से मत्स्य के जनपद और उसकी राजधानी विराट नगर को ही चुना। यह विराट उस समय मरुभूमि के उत्तरी छोर पर था, जो आज कल का बैराट है। यह अवश्य ही प्राचीन काल में महत्त्वपूर्ण स्थान था और शूरसेन जनपद से राजस्थान में घुसने के लिए यातायात पथ पर महत्त्वपूर्ण नाका माना जाता था। कालान्तर में मौर्य सम्राट अशोक ने यहीं पर अपना एक शिलालेख उत्कीर्ण कराया। अब पाण्डव सलाह करने लगे कि अज्ञातवास में अपने-आपको किस-किस रूप में छिपावें। युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘मैं कंक नामधारी ब्राह्मण बनकर राजा की सभा में द्यूत आदि खेल खिलाने वाला (सभा-स्तार) बनूंगा।’’ भीम ने कहा, ‘‘मैं बल्लव नाम का रसोइया बनूंगा और रसोई-घर में रहकर राजा के लिए बढ़िया भोजन बनाऊंगा। समाज नामक उत्सवों में जो मल्ल आयंगे, उनके साथ कुश्ती भी करके उन्हें पछाडूंगा।’’ महाबली वृषभ और हाथियों को वश में लाने का काम भी पड़ा तो करूंगा।’’ तब युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर साभिप्राय दृष्टि से देखा। अर्जुन ने कहा, ‘‘मैं यह प्रतिज्ञा करूंगा कि मैं नपुंसक हूँ। कानों में सुनहले कुण्डल पहनकर और सिर पर वेणी गूंथकर बृहन्नड़ा नाम से अन्तःपुर के जनों को गीत-नृत्य-वादित्र की शिक्षा देता हुआ विराट की रानियों का मन बहलाऊंगा। मनुष्यों के मन बहलाव के लिए (प्रजानां समुदाचारं) इधर-उधर की बातें करके किसी प्रकार अपने-आपको छिपाने का प्रयत्न करूंगा।’’ पूछने पर नकुल ने कहा, ‘‘मैं ग्रन्थिक नाम रखकर विराट के यहाँ अश्वाध्यक्ष का काम करूंगा। अश्व-शिक्षा और अश्व-चिकित्सा सर्वदा मेरे प्रिय विषय रहे हैं।’’ सहदेव ने कहा, ‘‘मैं तन्तिपाल नाम रख कर विराट का गोसंख्यक बनूँगा। गायों के लक्षण, चरित्र और कल्याण के नाम मुझे सुविदित हैं। मुझे ऐसे पूजित लक्षण वृषभों की पहचान है, जिनका मूत्र सूंघ लेने से वंध्या गाएं भी बच्चा जनने लगती हैं।’’ तब युधिष्ठिर ने द्रौपदी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘यह हम सबके लिए प्राणों से भी अधिक प्रिय, माता की तरह परिपालनीय और ज्येष्ठस्वसा की भाँति पूज्य है। यह राजपुत्री और किसी कर्म से परिचित नहीं। हां, माल्यगन्ध, अलंकार, वस्त्रों का इसे परिचय है।’’ द्रौपदी ने कहा, ‘‘लोक की यह परिपाटी है कि सैरन्ध्री स्त्रियां रखैल नहीं होती, वे केवल दासी का काम करती हैं। जो अन्य स्त्रियां हैं, वे सैरन्ध्री से भिन्न होती हैं। अतएव मैं सैरन्ध्री बनकर केशों का संस्कार करने का काम करूंगी। राजभार्या सुदेष्णा के पास मैं रहूंगी और वहाँ पहुँचने पर वह मुझे रख लेगी।’’ अपने आश्रित जनों की व्यवस्था पर विचार करते हुए युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘पुरोहित धौम्य रसोइये आदि भृत्यों को लेकर द्रुपद के यहाँ जाकर रहें और अग्निहोत्र प्रज्वलित रखें। द्रौपदी की परिचारिकाएं भी वहीं जाकर रहें। कोई यह न कहे कि पाण्डव हमें विदा करके द्वैतवन से चले गए। इन्द्रसेन आदि हमारे पुत्र द्वारावती चले जायं।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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