विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 241-247
पाण्डवों ने प्रवास का समय द्वैतवन में बिताने का निश्चय किया था, किन्तु वे कुछ ही वर्ष रह पाये थे कि दुर्योधन ने वहाँ पहुँचकर और गन्धर्वों से लड़-भिड़कर खरमंडल कर दिया। उसके बाद स्वतः ही युधिष्ठिर को स्थान बदलने की आवश्यकता प्रतीत हुई। कथा-लेखक ने ‘मृग-स्वप्न’ नामक चुटकले से इसी बात को उभारने का प्रयत्न किया है। जंगल में रहते हुए पाण्डवों ने मृगों को जो सफाया किया था, उसका एक सहृदयतापूर्ण चित्र यहाँ पाया जाता है। एक बार युधिष्ठिर ने स्वप्न में देखा कि जंगल के हिरन उनके पास आये हैं और हाथ जोड़कर गद्गद् कंठ से कांपते हुए कुछ कहना चाहते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा, ‘‘आप कौन हैं और क्या कहना चाहते हैं?’’ मृगों ने कहा, ‘‘हम द्वैतवन के हैं, जो मरने से किसी प्रकार बच रहे हैं। हे महाराज, अब तो आप स्थान बदल दें, जिससे हम बिल्कुल नष्ट न हो जायँ। आप सब भाई शूरवीर और हथियार चलाने में चतुर हैं। हम वनवासियों के थोड़े-से परिवार ही बचे हैं, जो बस अब बीज के ही कम आयेंगे। आपकी कृपा हो जाय तो हम फिर बढ़ जायँगे।’’ डरे हुए मृगों को देखकर युधिष्ठिर को दया आ गई और उन्होंने स्वप्न मे ही उन्हें अभय-दान दिया। जागने पर उन्होंने अपने भाइयों से यह बात कही। उन्होंने कहा, ‘‘मृगों का कहना ठीक है। इसलिए हम मरुभूमि के सिरे पर स्थित काम्यक वन में चलकर तृणबिन्दु सरोवर के निकट अपनी बस्ती बनावें।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज