विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 24-30
42. गोग्रहण
पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष बीतने पर अज्ञातचर्या का तेरहवां वर्ष भी लगभग पूरा हो रहा था। दुर्योधन के मन में खलबली मची थी और उसने चारों ओर अपने गुप्तचर छोड़ रखे थे। ग्राम, नगर राष्ट्रों को खोजकर उन बहिश्चरों ने सभा के मध्य में दुर्योधन को सूचना दी कि हमने बहुत ढूंढ़ा, पर पाण्डवों का पता नहीं चला। आपका भला होने को है, जो वे इस तरह से नष्ट हो गए। हाँ, हमने इतना सुना है कि मत्स्यराज के सेनापति जिस कीचक ने त्रिगर्तों को छकाया था, उसे किन्हीं अज्ञात गन्धर्वों ने मार डाला है। दुर्योधन ने कुछ देर तक अन्तरमन में सोच कर फिर सभासदों का मत जानना चाहा। कर्ण ने कहा कि और भी चाक-चौबन्द चरों को इस काम में लगाना चाहिए। दुःशासन ने समर्थन किया। द्रोण ने कहा कि पाण्डव इस प्रकार से नष्ट हो जाने वाले नहीं हैं। नीति, धर्म और अर्थ के तत्त्वज्ञ युधिष्ठिर धृतिशील हैं और सब भाई उसके साथ हैं। हो नहीं सकता कि वे नष्ट हुए हों। वे केवल समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। भीष्म ने द्रोण से सहमत होते हुए कहा, ‘‘मैं कुछ बुद्धि की बात कहता हूँ, द्रोह-भाव से नहीं। मेरा मत है कि पाण्डव नष्ट नहीं हुए। युधिष्ठिर जिस पुर या जनपद में होंगे, वहाँ मनुष्य अपने-अपने धर्म में निरत होंगे। वहाँ वेद-घोष और पूर्णाहुतियों से युक्त भूरि दक्षिणा वाले यज्ञ होते होंगे। वहाँ सुकाल में मेघ बरसता होगा। भूमि निर्विघ्न कृषि-सम्पत्ति से भरी होगी। वहाँ के धान्यों में रस, फलों में गुण, पुष्पों में गन्ध भरी होगी। उस प्रदेश की वाणी में शुभ शब्दों का समावेश होगा। युधिष्ठिर जहाँ हों, वहाँ भय नहीं होगा। वहाँ बहुला गाएं, दूध-दही-घी से घरों को भर रही होंगी। वहाँ मनुष्य संतुष्ट, शुद्ध, प्रीतियुक्त, उत्साही धर्म परायण होंगे। युधिष्ठिर की जहाँ सन्निद्धि हो, वहाँ की शुभमति प्रजाएं अवश्य ही सब सुन्दर मंगलों से भरी-पूरी होंगी। इन लक्षणों से युधिष्ठिर का पता लगेगा। सो भी अच्छे द्विजाति उन्हें जान पायंगे, साधारण व्यक्ति नहीं।’’ कृपाचार्य ने भीष्म की बात से तार मिलाते हुए कहा, ‘‘पाण्डव कहीं गूढ़ भाव से छिपे हैं, समय आने पर प्रकट होंगे। सामान्य रिपु की भी उपेक्षा नहीं की जाती रणशूर पाण्डवों की तो बात ही क्या! अतएव अपना बल और कोष ठीक कर रखो, जिससे समय पर पाण्डवों के साथ उचित स्तर पर सन्धि की जा सके।’’ कृपाचार्य ने कुछ चुपड़ी बात कही, बाहर से शान्ति की, भीतर से लड़ाने वाली। वहीं सभा में त्रिगर्तराज सुशर्मा भी बैठा था, जो कई बार शाल्वेय और मत्स्यों से करारी मार खा चुका था। कीचक के न रहने से अपना दांव आया जान उसने सलाह दी, ‘‘मेरे मत से विराट पर चढ़ाई कराने का सही समय है, जब हम उसके धन-धान्य और गोकुल को बलपूर्वक छीन लावें। या तो उसकी सेना को ठिकाने लगा देंगे या सन्धि करके उसकी शक्ति अपने पक्ष में कर लेंगे।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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