विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 94-103
52. मातलीय उपाख्यान और गालव-चरित
जब कौरवों की सभा में कृष्ण अपना भाषण समाप्त कर चुके तो स्वाभाविक यह था कि उपस्थित सदस्य अपना मत प्रकट करते। अवश्य ही मूल महाभारत में इसी प्रकार का पाठ रहा होगा, जिसके अनुसार अध्याय 93 के बाद वह प्रकरण था, जो इस समय अध्याय 123 में कृष्ण की उक्ति पर भीष्म के वचन से आरम्भ होता है। जैसा हम पहले लिख चुके हैं, बीच के 28 अध्याय बेडौल पैबन्द की तरह अलग पहचाने जाते हैं। इनमें दो कथानक हैं। पहले में इन्द्र के सारथि मातलि की कन्या की कथा है।[1] दूसरे में गालव द्वारा अपने गुरु विश्वामित्र को गुरु दक्षिणा में 800 श्याम कर्ण घोड़े देने की कथा है।[2] इन दोनों उपाख्यानों का लोक में पृथक अस्तित्व था। वहाँ से पंचरात्र भागवतों की कृपा द्वारा इन्हें ‘महाभारत’ में स्थान प्राप्त हुआ। इन्हें पढ़ते ही रचयिताओं की छाप प्रकट हो जाती है। मातलि उपाख्यान इस प्रकार हैः जब कृष्ण हस्तिनापुर आ रहे थे, तो संक्षेप में एक सूचना दी गई है कि मार्ग में उन्हें कुछ ऋषि मिले और उन्होंने अनुमति चाही कि आपका जो अभूत पूर्व भाषण कौरव-सभा में होने वाला है, क्या हम भी उसे सुनने आ सकते हैं? कृष्ण को इसमें क्या आपत्ति होनी थी? उनका संकेत पाकर ऋषि भी सभा में पहुँच गए। कृष्ण तो वहाँ थे ही। उन्होंने भीष्म से कहकर ऋषियों को भीतर बुलवाया और सम्मानपूर्वक आसन दिलवाया। वे चुपचाप कृष्ण का भाषण सुनते रहे। यहाँ तक तो किसी प्रकार संगति लगाई भी जा सकती है, पर इतने बड़े ऋषि सभा में आकर चुप रह जायं यह कैसे संभव था? अतएव कृष्ण के बैठते ही जमदग्नि परशुराम ढीठ होकर कहने लगे, “एक सच्चा दृष्टान्त मैं कहता हूं, उसे पहले सुनकर फिर अपना मार्ग निश्चित कीजियेगा। कोई दम्भोद्भव नामक राजा था। युद्ध के लिए उसके भुज दण्ड फड़कते रहते थे। अपने योग्य प्रतिपक्षी से भिड़न्त करने के लिए जब सारी पृथ्वी में फिरकर उन्हें कोई न मिला, तो अपने यहाँ के ब्राह्मणों से पूछा कि ऐसे किसी पुरुष का नाम बताओ, जो मेरे सामने डट सके। बार-बार तंग करने पर उन्होंने भी कह दिया कि दो बब्बर शेर तुल्य मनुष्य ऐसे हैं कि तुम उनके सामने कुछ नहीं। राजा ने चट पूछा कि वे कौन हैं? विनोदी ब्राह्मणों ने कहा, ‘हमने सुना है कि वे नर-नारायण नाम के ऋषि हैं, जो मनुष्य लोक में जन्में हैं। उनसे चाहो तो युद्ध करो। वे गन्धमादन पर तप कर रहे हैं।’ यह सुनकर दम्भोद्भव बड़ी सेना सजाकर वहीं पहुँचा। ऋषियों ने स्वागत करके आने का कारण पूछा तो राजा ने कहा कि मैं युद्ध के लिए आया हूं, वही मेरा आतिथ्य है। ऋषियों ने कहा, “यह आश्रम है। यहाँ क्रोध, लोभ और युद्ध नहीं होता।” पर दम्भोद्भव उन्हें ललकारता रहा। इस पर नर ने सींकों की एक मुट्ठी उठाकर उसकी तरफ फेंक दी और कहा कि लो, इससे युद्ध कर लो। देखते-देखते वे सीकें धरती से आकाश तक छा गईं और सैनिकों की आंख, नाक तथा कानों में भर गई। राजा का दर्प चूर हो गया और वह ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। तब उसे अभय देते हुए ऋषि ने समझाया कि धर्म का पालन करो। जाओ, अब फिर ऐसा न करना। राजा अपने नगर को लौट आया। नर नामक ऋषि की इतनी महिमा थी, नारायण तो उनसे कितने ही गुना बड़े थे।” यह कहानी सुनाकर परशुराम ने समझाया कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान, मत्सर और अहंकार ये आठ घोर शत्रु हैं।[3] इनके वश में पड़ने से मृत्यु ही हो जाती है। हे दुर्योधन, इनसे बचो। नर-नारायण ही अर्जुन और कृष्ण हैं। इस कथा का आशय नितान्त स्पष्ट है। दम्भोद्भव दुर्योधन का ही प्रतीक है। यह युद्ध के लिए तड़प रहा है और किसी को अपने जैसा नहीं समझता। किसी भागवत कथाकार ने उपयुक्त अवसर पर उसे यह संकेत देना उचित समझा कि जिन कृष्ण और अर्जुन को तुम तुच्छ समझ रहे हो, वे साक्षात नर-नारायण ऋषि हैं जिनके सामने तुम तिनके के बराबर भी नहीं हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 94-103
- ↑ अ. 104-121
- ↑ यहाँ एक विचित्रकूट श्लोक हैः
काकुदीकं शुकं नाकमक्षिसतर्जन तथा।
संतानं नर्तन घोरमास्यमोदकमष्टमम्।।
(1) काकुदीक - कूचड़वाला सांड, काम।
(2) शुक - टाय-टाय करने वाला सुग्गा, क्रोध।
(3) नाक - मौज मजे वाला स्वर्ग, लोभ।
(4) अश्रि संतर्जन - दुखती हुई आंख, मोह।
(5) संतान - कल्पवृक्ष, मद।
(6) नर्तन - मटकना, मटकता हुआ मोर, मान।
(7) घोर - सताने वाला, भैरव, मत्सर।
(8) आस्यमोदक - मुंह लड्डू, अहंकार।
(संतान स्वर्ग के एक वृक्ष की संज्ञा है। इससे मद चुआया जाता था।)
ये आठ दैवी अस्त्र जिसे बींध देते हैं, वह बिना मृत्यु के मर जाता है, बौरा जाता है या बेहोश हो जाता है।
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