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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
13. अनुशासन पर्व
अध्याय : 1-146
अनुशासन पर्व का पूना संस्करण अभी प्रकाशित नहीं हुआ है, अतः गीता प्रेस के संस्करण को ही यहाँ व्याख्या का आधार माना गया है। इसमें 168 अध्याय हैं। पूना संस्करण में 146 अध्याय में मूल रहेंगे। अनुशासन पर्व शान्तिपर्व से विस्तार में लगभग आधा है। मोक्षधर्म में पर्व में जिन महान विषयों का अध्यात्म, धर्म और दर्शन के विषय में समास-व्यास शैली से वर्णन हो चुका था, उनके अतिरिक्त कुछ विषय ऐसे रह जाते थे जिनका परिचय देना भी गृहस्थियों के लिए आवश्यक था। उन्हीं का संग्रह अनुशासन पर्व में है। अतः इसे शान्तिपूर्व का परिशिष्ट भाग ही कहना चाहिए। ये विषय इस प्रकार थेः दान, व्रतोपवास, तीर्थ, श्राद्ध, विष्णु महिमा, शिव महिमा, ब्राह्मण महिमा, तप महिमा, गृहस्थ महिमा, यज्ञ महिमा आदि। इस प्रकरण में राजधर्म को भी फिर से ले लिया गया है।[1] तथ्य यह था कि पुराण युग में जिन नये विषयों की उत्थापना हुई थी उनमें दान, व्रतोपवास, तीर्थ और श्राद्ध मुख्य थे। कभी-कभी चार वर्ण और चार आश्रम, सदाचार आदि की महिमा का भी छौंक पाया जाता था। उसी सामग्री को आधार मानकर अनुशासन पर्व का कलेवर पूरा किया गया है। इस प्रकार का दृष्टिकोण गुप्त युग में सामने आया और वही यहाँ उपलब्ध होता है। दान धर्म
इस समय अपने शरीर के अर्पण को दान-धर्म की पराकाष्ठा माना जाता था। यहाँ उशीनर देश के राजा शिवि द्वारा कपोत की प्राण रक्षा के लिए अपने शरीर का मांस देने की कहानी कही गई है।[2] बौद्धों ने इसे शिव जातक के रूप में ग्रहण किया था। दिव्यावदान में राजा चन्द्र प्रभ द्वारा शिरोदान की कथा आई है। वहीं रूपावती अवदान में बालक की प्राणरक्षा के लिए रूपावती द्वारा अपने शरीर का मांस देने की कथा है। मोक्ष धर्म में कपोत-कपोती द्वारा अतिथि की प्राण रक्षा के लिए स्वशरीरार्पण की सुन्दर कहानी है। दान का एक रूप उद्यान, जलाशय, कूप, प्रपा आदि का निर्माण था। मथुरा से प्राप्त लेखों में इनका बहुधा उल्लेख आया है।[3] उसका यहाँ अध्याय 58, 59, 60, 61, 62, 63, 64, 65 और 95 में कथन है। सुवर्ण जल आदि विभिन्न वस्तुओं का दान[4] बहुत विस्तार से पुराणों में आया है। छिट-पुट वस्तुओं के दान के विषय में उसी के कुछ छींटे यहाँ पड़े हैं।[5] अन्नदान, सुवर्ण, छत्र और उपानह, पुष्प, धूप, दीप, और उपहार के दान, शक्कर, तिल, भूमि, गौ आदि के दान का विस्तार पुराणों में पाया जाता है, जो गुप्तयुग से लेकर मध्ययुग तक बहुत परिवर्धित होता रहा। व्यास और मैत्रेय ने भी दान को सर्वश्रेष्ठ कहा है। इसी संवाद में विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा, दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित तथा पांच प्रकार के दानों का वर्णन है। श्राद्ध कर्म इस युग का प्रिय विषय था- जिसका वर्णन अ. 87-92 में आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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