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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
54. श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
श्रीमद्भगवद्गीता भीष्म पर्व का सुप्रसिद्ध अंश है। इसके 18 अध्याय हैं|[1] आरम्भ में और अंत में इसमें धृतराष्ट्र और संजय के संवाद रूप में कुछ श्लोक हैं, शेष कृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में हैं। भगवद्गीता जैसा ग्रन्थ भारतीय साहित्य में दूसरा नहीं है। भारतीय मान्यता के अनुसार यह ईश्वर का मानव को उपदेश है। इसकी कई विशेषताएं हैं, जो और ग्रंथों में नहीं मिलती। गीता-संवाद-ग्रन्थ है। अतएव आदि से अंत तक इसकी मार्मिक रोचकता का प्रभाव मन पर पड़ता है। इसकी शैली शुष्क वर्णन से ऊपर है। यह मुख्यतः अध्यात्म विद्या का ग्रन्थ है। धम्मपद के समान नीति-विद्या तक यह सीमित नहीं। अध्यात्म से तात्पर्य मनुष्य के मन की उस समस्या से है, जो आत्मा के विषय में, उसके अमृत स्वरूप, आदि और अंत के विषय में, शरीर और कर्म के विषय में, संसार और उसमें होने वाले अच्छे-बुरे व्यवहारों के विषय में, आत्मा और ईश्वर के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में, एवं मानवी मन की जो ज्ञान, कर्म और भक्ति रूपी तीन विशेष प्रवृत्तियां हैं, उनके अनुसार किसी एक को विशेष रूप से स्वीकार करके सब प्रकार के जीवन व्यवहारों को सिद्ध करने और सबके समन्वय से जीवन को सफल, उपयोगी और आनन्दमय बनाने के विषय में उत्पन्न होती है। इस प्रकार के अत्यन्त उदात्त लक्ष्य और जिज्ञासा की पूर्ति जिस एक शास्त्र से होती है, वह भगवद्गीता है। इसकी शैली में कविता का रस है। इसके स्वर ऐसे प्रिय लगते हैं, जैसे किसी अत्यन्त हितू मित्र की वाणी अमृत बरसाती है। इसमें उपनिषदों के समान वक्ता के प्रत्यक्ष सिद्ध या स्वानुभव में आये हुए ज्ञान का वातावरण प्राप्त होता है। गीता की पर्याप्त प्रशंसा शब्दों में करना अशक्य-सा ही है, क्योंकि विश्व के साहित्य में कर्म शास्त्र और मोक्ष शास्त्र का ऐसा रस पूर्ण ग्रन्थ कोई दूसरा उपलब्ध नहीं है, जिससे गीता की तुलना की जा सके। धार्मिक मान्यता के अनुसार गीता साक्षात भगवान की वाणी है, पर अर्वाचीन मन को इस तथ्य को स्वीकार करने में झिझक हो सकती है। तो भी इस प्रकार की कल्पना तो स्वीकृति योग्य मानी ही जा सकेगी कि यदि ईश्वर जैसी कोई अध्यात्म सत्ता सृष्टि में है और मानव अपने जीवन के लिए संशय रहित मार्ग की जिज्ञासा से युक्त होकर उस ईश्वर तत्त्व के ही, जिसने विश्व और मानव का निर्माण किया है, सान्निध्य में पहुँच जाय तो उससे प्राप्त होने वाले समाधान का जो स्वरूप सम्भव हो, वही ‘गीता’ है। मनुष्य को गीता जैसे मार्मिक ज्ञान की जीवन में बहुत बार आवश्यकता पड़ती है, जिसके प्रकाश में वह अपने संशयों को सुलझा कर अपने लिए कर्म करने या न करने का निश्चय कर सके। व्यक्ति के मन की और कर्म की शक्ति जितनी अधिक होती है, उसी के अनुसार उसका संशय उसे भीतर तक झकझोरता है और उसके समाधान के लिए उतने ही गम्भीर ऊहापोह और समाधान करने वाले व्यक्ति की ऊंचाई की आवश्यकता होती है। हमें अर्जुन और कृष्ण के रूप में ऐसे ही शिष्य और गुरु के दर्शन होते हैं। भगवान कृष्ण की वाणी वेदव्यास की पूर्णतम मनः समाधि से निष्पन्न हुई है। अतएव इसमें संदेह नहीं कि गीता मानव के जीवन की मौलिक समस्याओं की व्याख्या करने वाला ऐसा परिपूर्ण काव्य है, जिसकी तुलना अन्य किसी दर्शन, धर्म, अध्यात्म या नीति के ग्रन्थ से करना सम्भव नहीं। भारतवर्ष में अध्यात्म की परम्परा बहुत ऊंचे धरातल पर सहस्रों वर्षों तक फूली-फली है। वेद और उपनिषद जैसे महान ग्रन्थ उसी के फल हैं। किन्तु यहाँ के साहित्य में भी गीता के 700 श्लोक अपनी उपमा नहीं रखते। उनमें जो वक्ता और श्रोता के हृदय की उन्मुक्त सरलता है, शब्दों की जैसी शक्ति है, शैली का जो प्रवाह है और सर्वोपरि विषय की मानव जीवन के साथ जैसी सन्निधि है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पूना संस्करण अ. 23-40
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