विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 227-240
35. दुर्योधन की घोष-यात्रा
किसी ब्राह्मण ने यह सूचना हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र को दी और कहा कि पाण्डव वन में नाना क्लेश सह रहे हैं। यह सुनकर धृतराष्ट्र के मन में एक हूल पैदा हुई। उसने समझा कि मैं ही पाण्डवों के कष्ट का कारण हूँ; किन्तु धृतराष्ट्र का मन बहुत देर तक ऋजु भाव से सोचने का अभ्यस्त न था, जैसा हम पहले कई बार देख चुके हैं। उसने सोचा, ‘‘पाण्डव इतना दुःख पाने के बाद कौरवों से बदला लिये बिना न मानेंगे। अर्जुन स्वर्ग में दिव्यास्त्र सीखने गया था। यदि बदला लेने की इच्छा न होती तो कौन ऐसा मनुष्य है, जो स्वर्ग से फिर लौटना चाहेगा? कदाचित युधिष्ठिर और अर्जुन पाप की बात न भी सोचें तो भी भीमसेन कभी न मानेगा। मेरे पुत्र पहाड़ की चोटी पर लगे हुए मधु को देखते हैं, नीचे का खड्ड नहीं देखते।’’ उसने एकान्त में अपनी यह आशंका दुर्योधन और शकुनि से प्रकट की। उन्होंने जाकर कर्ण से सलाह की तो कर्ण ने अपनी कुटिलता का कुछ अंश उडे़लते हुए कहा, ‘‘अब चिन्ता किस बात की है? पाण्डवों को निकालकर सुख से पृथ्वी को भोगो। सब राजा तुम्हारे करदाता हैं। पाण्डवों की लक्ष्मी तुम्हारे पास आ गई है। सुना है, पाण्डव द्वैतवन में है, तो तुम साज सजकर वहाँ चलो और पाण्डवों को इस दीन दशा में देखकर अपने जी को ठंडा करो। शत्रु को कष्ट में देखकर जो सुख मिलता है, वह पुत्र, धन या राज्य-लाभ से भी नहीं मिलता। तुम्हारी सुवासिनी स्त्रियों को देखकर कृष्ण का मन टूक-टूक हो जाएगा।’’ कर्ण की बात सुनकर दुर्योधन की बांछें खिल गईं। उसने कहा, ‘‘कर्ण, यही सब तो मेरे भी मन में था। पर धृतराष्ट्र से मुझे वहाँ जाने की अनुमति कभी न मिलेगी। वह तो दुःख में तपे हुए पाण्डवों को कुछ और ऊँचा समझकर उनके लिए सोच किया करता है। फिर वह यह भी ताड़ लेगा कि वनवासी पाण्डवों के पास जाने का उन्हें कष्ट देने के सिवाय हमारा और क्या प्रयोजन हो सकता है। हाँ! यदि धर्मराज और भीमसेन मेरी इस लक्ष्मी को देख पाते तो मेरे जान-में-जान आ जाती, पर कोई उपाय नहीं सूझता। यह सुनकर कर्ण ने हंसते हुए कहा, ‘‘उपाय मेरी समझ में आ गया। सुना है, इस समय राजकीय घोष द्वैतवन में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। घोष-यात्रा के बहाने चलना चाहिए।’’ अगले दिन सबने धृतराष्ट्र के दर्शन किये। उसी समय सधे-सधाये समंग नाम के ग्वाले ने धृतराष्ट्र से निवेदन किया, ‘‘महाराज, आजकल आपका समस्त गोधन पास में ही चरने के लिए आया हुआ है।’’ बात का तार जोड़कर चट कर्ण और शकुनि ने कहा, ‘‘महाराज, इस समय हमारे घोषों का पड़ाव बड़े सुन्दर स्थान में हुआ है। गायों के स्मारण (गणना) और बछड़ों के अंकन (नए बछड़ों पर चिह्न डालने) का यही समय है। और इसी अवसर पर कुछ थोड़ी मृगया भी दुर्योधन के लिए उचित होगी। अतएव आप दुर्योधन को वहाँ जाने की अनुज्ञा दें।’’ धृतराष्ट्र ने बात की मरोड़ को और गहराई से पहचाना और कहा, ‘‘मृगया और गायों की देख-भाल ये दोनों बातें तो ठीक हैं, पर कहने से ही विश्वास करके वहाँ न चले जाना चाहिए। संभव है, इसमें कुछ छिद्र हो। सुनने में आया है कि पास में ही पाण्डव ठहरे हैं। वे सताये हुए हैं। इसलिए हो सकता है कि वे चोट करें। मेरी राय में तुम्हारा वहाँ जाना ठीक नहीं। हमारे विश्वसनीय राजपुरुष गायों की संख्या कर लावेंगे।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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