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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 135
लोमश ऋषि ने युधिष्ठिर से संकेत किया, ‘‘हे राजन, यह कनखल प्रदेश है। यहाँ महानदी गंगा शैलराज हिमवन्त से उतर कर समतल भूमि में आती है। यहीं भगवान सनत्कुमार ने सिद्धि प्राप्त की थी। यहीं रैभ्य मुनि का वह सुन्दर आश्रम है, जहाँ भरद्वाज के पुत्र यवक्रीत ऋषि नाश को प्राप्त हुए।’’ युधिष्ठिर ने प्रश्न किया, ‘‘ऋषि-पुत्र यवक्रीत के नाश का क्या कारण था?’’ लोमश ने उत्तर दिया, ‘‘भरद्वाज और रैभ्य दो मित्र थे। भरद्वाज के पुत्र का नाम यवक्रीत था। रैभ्य के भी दो पुत्र थे, अर्वावसु और परावसु। रैभ्य विद्वान थे और भरद्वाज तपस्वी। रैभ्य का सर्वत्र सत्कार होता था। यह देखकर यवक्रीत को क्षोभ हुआ और उसने वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिक तप आरम्भ किया। उसका कठोर तप देखकर इन्द्र ने प्रकट होकर तप का कारण पूछा यवक्रीत ने कहा, ‘‘हे इन्द्र, गुरुमुख से वेदों को पढ़ने में बहुत समय लगता है। मैं चाहता हूँ कि तप से मुझे सब वेदों का ज्ञान प्राप्त हो जाय।’’ इन्द्र ने कहा, ‘‘यह मार्ग पर्याप्त नहीं है, इससे सफलता न होगी। जाओ गुरुमुख से वेद पढ़ों।’’ इन्द्र यह कहकर चले गये, पर यवक्रीत ने अभीष्ट-सिद्धि के लिए और भी घोर तप आरम्भ किया। इन्द्र फिर आये और उसे टोककर बोले, ‘‘तुमने यह असंभव काम हटपूर्वक आरम्भ किया है, बुद्धिपूर्वक नहीं‚ यवक्रीत ने उत्तर दिया, ‘‘हे देवराज; यदि इस प्रकार मेरी इच्छा पूरी न हुई तो इससे भी घोर तप करूंगा। समझ लो, यदि तुमने मेरी मनोकामना पूरी नहीं की तो अपना एक-एक अंग काटकर अग्नि में हवन में कर दूँगा।’’ उसका यह कठोर निश्चय जानकर इन्द्र ने एक युक्ति सोची। उसने एक निर्बल बूढ़े ब्राह्मण का रूप बनाया और जहाँ यवक्रीत गंगा में स्नान करने जाता था, वहाँ बालू की एक-एक मुठ्ठी डालकर बान्ध बान्धने लगा। यवक्रीत ने उस बूढ़े ब्राह्मण को व्यर्थ परिश्रम करते देखा और कहा, ‘‘हे ब्राह्मण, तुम क्या चाहते हो? क्यों इस निरर्थक काम में लगे हो?’’ इन्द्र ने कहा, ‘‘लोगों को गंगा के आर-पार जाने में कष्ट होता है। उनके लिए सुखकर सेतु बना रहा हूँ।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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