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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
7. द्रोण पर्व
अध्याय : 1-31
ये त्रिगर्त देश (वर्तमान कुल्लू-कांगड़ा) के राजा थे। इनका अर्जुन के साथ घोर संग्राम हुआ और अर्जुन ने उनकी सेना के अधिकांश भाग का वध कर दिया। संशप्तक गणों ने अर्धचन्द्र व्यूह बनाकर युद्ध किया। पाण्डवों की ओर से उनसे युद्ध करने वाली सेना को गोपाल नारायण कहा गया है, अर्थात यह भगवान कृष्ण की वह सेना थी, जो गोपाल गिरि या ग्वालियर के प्रदेश में एकत्र की गई। वह प्राचीन कुन्त (कोतवार) प्रदेश था। इस उप पर्व में प्रायः युद्ध-जनित संहार का वर्णन है, किन्तु अध्याय 22 में धृतराष्ट्र ने संजय को बीच में रोककर योद्धाओं के रथ आदि के विषय में विशेष रूप से जानना चाहा। इसी प्रसंग में कथाकार ने 50 प्रकार के घोड़ों का नामोल्लेख किया है, जिसका आधार उनके भाँति-भाँति के रंग थे। अवश्य ही यह वर्णन गुप्त युग का ज्ञात होता है। उस समय भारतीय सेना का पुनः संगठन गुप्त सम्राटों ने घुड़सवार पल्टनों को रखकर किया और अश्व सेनाओं को सबसे अधिक महत्त्व दिया। वस्तुतः पहली और दूसरी शती में विक्रान्त शक सेना में घुड़सवार पल्टनें ही मुख्य थीं। शकों की इस युद्ध-कला को भारतीयों ने भी सर्वथा अपना लिया। कालिदास ने रघुवंश के चौथे सर्ग में सरपट चलती हुई इन सेनाओं का बहुत अच्छा चित्र खींचा है। उस समय कम्बोज (मध्य एशिया), बाह्लीक (बल्ख), दरद्-काश्मीर, गान्धार, वनायु, उत्तर पश्चिम की बना घाटी आदि स्थानों से वहाँ के व्यापारी बढ़िया नस्ल और रंगों के घोड़े भारतवर्ष में लाकर बेचते थे। इसका कुछ उल्लेख बाण ने हर्षचरित में किया है। बाण की सूची में बनायु, कम्बोज, सिन्धु आदि देशों के अतिरिक्त सासानी ईरान देशों के घोड़ों का वर्णन है, जिनका उल्लेख कालिदास ने भी पार्शिकों के वर्णन में किया है।[1] गुप्त-युग के साहित्य में द्रोण-पर्व का यह वर्णन नितान्त मौलिक और अनूठा है। किसी प्रतिभाशाली कवि ने अपने समकालीन वर्णक साहित्य से इस प्रकार के रंगों और नामों का संग्रह करके उसे लगभग साठ श्लोकों में यहाँ संग्रहीत कर दिया है। यह घोड़ों का व्यापार करने वाले सार्थवाहों की क्रोड़पत्रिका-सी जान पड़ती है। इससे मिलती-जुलती और ऐसी ही विचित्र अन्य सूची दण्डी की अवन्ति-सुन्दरी नामक सातवीं सदी की रचना में है।[2] उसका भी आधार कोई ऐसा ही वर्णक रहा होगा। यह उल्लेखनीय है कि चौथी से सातवीं शती तक की 300 वर्षों तक घोड़ों की शब्दावली ठेठ भारतीय और संस्कृत प्रधान थी, किन्तु आठवीं शती के आरम्भ से अरब देश के सौदागर भी घोड़ों की तिजारत में हिस्सा लेने लगे और राष्ट्रकूट राजाओं ने इस विषय में उनको बहुत-सी सुविधाएं दीं। फलतः आठवीं शती के मध्य भाग से अरबी भाषा के नाम भी जैसे बोल्लाह आदि भारतीय बाजारों में चालू होने लगे। अगले तीन सौ वर्षों में स्थिति ऐसी हो गई कि भारतीय शब्दावली प्रायः जाती रही और उसके स्थान पर अरबी के नाम ही चल पड़े, जैसा मानसोल्लास और हेमचन्द के अभिधान-चिन्तामणि कोश से ज्ञात होता है। अतएव यह और भी भूमिका का विषय है कि द्रोण-पर्व के इस प्रकरण से उस युग की ठेठ भारतीय शब्दावली का एक उज्ज्वल चित्र हमारे सामने आ जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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