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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
46. ऋषि सनत्सुजात का उपदेश
अध्याय : 41-46
उद्योग पर्व के अ. 42 से अ. 45 तक का नाम सनत्सुजात पर्व, जिसे सनत्सुजातीय भी कहते हैं, क्योंकि इसमें महर्षि सनत्सुजातकृत अध्यात्म-विद्या का उपदेश है। इस प्रकरण का महत्त्व इस बात से प्रकट है कि इस पर श्री शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है। शान्तिपर्व[1] के अनुसार सनत्कुमार पिता ब्रह्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे, जिनसे भीष्म ने अध्यात्म-शास्त्र की शिक्षा पाई थी। एक दूसरे स्थान पर[2] यह कल्पना की गई है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो मार्गों के आदिकर्ता दो प्रकार के सप्तर्षि थे। मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ ये सात ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रवृत्ति धर्मी सप्तर्षि थे, जिन्होंने क्रियामय प्राजापत्य मार्ग का अनुसरण किया। इनके ज्ञान का स्रोत वेद-विद्या थी। अतएव ये वेदाचार्य कहे गये। इनके प्रवृत्ति मार्ग केा भागवतों ने अनिरुद्ध, इस प्रतीक संकेत से स्वीकार किया।[3] ब्रह्मा के दूसरे मानसपुत्र सप्तर्षि निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हुए। सन, सनत्सुजात, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, कपिल, ये सात मोक्षशास्त्र के आचार्य और मोक्षधर्म के प्रवर्तक थे। इन्हें योगविद और सांख्यधर्मविद कहा गया है।[4] प्राचीन धर्म और अध्यात्म साधना की ये दो धाराएं किसी समय एक-दूसरे से मिल गईं और उस समन्वय के फलस्वरूप भागवत धर्म का विशेष प्रचार हुआ, जिसमें भुक्ति और मुक्ति इन दोनों आदर्शों पर बल दिया गया। छान्दोग्य उपनिषद में कथा आती है कि नारद अपने समय के सबसे बड़े वेदाचार्य अर्थात ऋक-यजु-साम रूपी त्रयी विद्या और वेदांगों के परम ज्ञाता थे। वे एक बार सनत्कुमार के पास उपदेश के लिए गये। वहाँ नारद को वेदवित और सनत्कुमार को आत्मवित कहा गया है। आत्मविद्या की परम्परा में ही सनत्कमार और सनत्सुजात आदि सप्तर्षि थे। इन्हीं से सांख्य शास्त्र के निवृत्ति मार्ग की परम्परा विकसित हुई और उसी परम्परा में आगे चलकर श्रमणधर्म का विकास हुआ। उपनिषद की कथा में नारद और सनत्कुमार वेदविद्या और आत्मविद्या के प्रतिनिधि हैं। यों तो मूल में वेद ही क्रिया मार्ग अर्थात कर्मकाण्ड और ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या का एक मात्र स्वरूप था। वैदिक दर्शन मुख्यतः ब्रह्म दर्शन ही है, किन्तु क्रमशः गृहस्थों के लिए कर्मकाण्ड और मुमुक्षुओं के लिए ब्रह्मविद्या इन दो विचार धाराओं ने जन्म लिया। निवृत्तिमार्गी आचार्यों को स्वयमागत विज्ञान कहा गया है, अर्थात इन आचार्यों के मन में ज्ञान का प्रादुर्भाव स्वयं अपनी साधना से हुआ, शब्दमय वेदविद्या के पारायण और अध्ययन के फल स्वरूप नहीं। ‘स्वयमागतविज्ञान’[5] शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्याकरण शास्त्र में स्पष्ट उल्लेख आता है कि कुछ विद्याओं का अध्ययन-अध्यापन वैदिक चरणों के अन्तर्गत हो रहा था और कुछ ऐसे नये शास्त्र भी थे, जिनकी उद्भावना चरणों से बाहर विद्वान आचार्य स्वयं कर रहे थे। शाकटायन और पाणिनि के व्याकरण ऐसे ही थे। इन शास्त्रों को तद्रुपज्ञ अर्थात आचार्य विशेष की बुद्धि से उत्पन्न कहा जाता था। दर्शन के क्षेत्र में तद्रुपज्ञ चिन्तन को ही स्वयमागत विज्ञान कहा गया है। सनत्सुजात और कपिल इसी परम्परा के थे। इसके विपरीत नारद चरणों के अन्तर्गत वैदिक परम्परा के आचार्य थे। पहली परम्परा में ही और अधिक स्वतन्त्र विकास के अनन्तर प्रज्ञावादी बुद्ध और महावीर जैसे स्वतंत्र आचार्यों ने जन्म लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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