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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
26. तीर्थ-यात्रा-2
तीर्थयात्रा के लिए लोमश के सुझाव का युधिष्ठिर ने उत्साह से स्वागत किया और वह प्रसन्न मन से चल पड़े। चलने से पहले लोमश ने युधिष्ठिर को सलाह दी कि यात्रा पर बोझ के बिना हलके होकर चलना चाहिए। जो हलका है, वह इच्छानुसार यात्रा कर सकता हैः
लोमश ने कहा, ‘‘मैं स्वयं दो बार तीर्थों को देख चुका हूँ। आपके साथ तीसरी बार फिर देखूंगा। पुण्यात्मा मनु आदि राजर्षि भी इस तीर्थयात्रा पर जा चुके हैं:
तीर्थयात्रा मनुष्य के मन का डर हटा देती है। सच है, यात्रा का यही बड़ा फल है। अपरिचित स्थानों और वहाँ के निवासियों के प्रति मन में जो शंका रहती है वह देश-दर्शन से मिट जाती है और अज्ञात भय के स्थान में प्रीति का संचार हो जाता है। तीर्थयात्रा की परम्परा को मनु आदि राजर्षियों तक ले जाना इस संस्था के महत्त्व और इसके प्रति सबकी पूज्य बुद्धि को सूचित करता है। युधिष्ठिर अपने भाई, द्रौपदी, पुरोहित धौम्य, लोमश और कुछ वनवासी ब्राह्मणों के साथ तीर्थयात्रा पर निकले पहले तीन दिन तक वे काम्यक वन में ही मन और शरीर की शुद्धि के लिए नियमों का पालन करते हुए ठहरे। उस समय व्यास, नारद और पार्वती भी उनसे मिलने आये। व्यास ने समझाया, ‘‘मन पवित्रता का संकल्प लेकर शुद्ध भाव से तीर्थों में जाना चाहिए। शरीर द्वारा नियम-पालन और शुद्धि मानुषी व्रत है, किन्तु मन द्वारा बुद्धि को शुद्ध रखना दैवी व्रत है। जो क्षत्रिय स्वभाव के शूर होते हैं। उनका मन पर्याप्त मात्रा में शुद्ध कहा जा सकता है। अतएव मेरा यही कहना है कि तुम अपने मन में सबके प्रति मैत्री का भाव भरकर तीर्थों में जाओ। शारीरिक नियम और मानसी शुद्धि का निर्वाह करने से तुम्हें तीर्थ यात्रा का पूरा फल मिलेगा।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आरण्यक, 90।18
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