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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 7-39
युधिष्ठिर का मन दुःख और शोक से भरा हुआ था। उन्होंने अर्जुन को बुलाकर जी बहलाना चाहा, पर उल्टे वह क्षात्र धर्म को ही कोसने लगे और वन में रहने वाले मुनियों के क्षमा, दम, शौच, अविरोध, अमत्सर, अहिंसा, सत्य वचन आदि धर्मों की प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा कि लोभ और मान के चक्कर में पड़कर वे राज्य का लवलेश चाहते हुए इस आपत्ति में फंस गये। युधिष्ठिर की बड़ी विचित्र प्रकृति थी। वह अवसर पर चूक जाते और फिर पीछे पछताते थे। वह समय पर अपने कर्त्तव्य को ओझल करके दूसरे कर्त्तव्य की चिन्ता में भटक जाते थे। उन्होंने मानो अर्जुन को ही गीता वाली भाषा में कहा, “त्रैलोक्य का राज्य भी हमें प्रसन्न नहीं कर सकता। पृथ्वी के लिए हमने अपने बन्धु-बान्धवों के वध का पाप किया है। जैसे कुत्ते मांस के लिए झगड़ते हैं, वैसे ही हमने राज्य के लिए किया। हम ही इन लोगों के विनाश के कारण हुए। अपने इस पाप कर्म से हम नरक में जायंगे। हे अर्जुन, अब मैं तुम सबसे विदा लेकर वन में चला जाऊंगा। यह राज्य और भोग मुझे नहीं चाहिए।” अर्जुन ने युधिष्ठिर के इन वचनों को अपने लिए व्यंग्य और कटाक्ष समझा। उसने उत्तर में कहा, “वाह, कैसा दुःख है, कैसा कष्ट है जिसके कारण धर्म से प्राप्त पृथ्वी को त्यागकर वन में चले जाने की बात सोची जाती है? नपुंसक और दीर्घ सूत्री के लिए राज्य कैसा? क्यों क्रोध में भरकर राजाओं को मारा? यदि इसी प्रकार भिक्षा मांगकर जीने की इच्छा थी, और राजा के लिए निन्दित खप्पर हाथ में लेकर भोजन करने की कापाली वृत्ति को अपनाना था, तो युद्ध का मंडान क्यों किया? और लोग क्या कहेंगे? अपने स्वस्तिभाव का नाश करके अकिञ्चन बनकर वन में जाने की क्या तुक है? “धर्म और अर्थ का त्याग करके वन के लिए प्रस्थान मूढ़ता है। पहले राजा नहुष कह गये हैं कि जीवन में अकिञ्चन्य किसी प्रकार प्रशंसनीय आदर्श नहीं है। लोक में दरिद्रता बड़ा पाप है। आप कैसे उसकी बड़ाई करते हैं। सब क्रियाएं धन से ही होती हैं। जैसे नदियां पर्वत की चोटी से बहती हैं, उसी प्रकार अर्थ के बिना लोक की प्राण यात्रा सिद्ध नहीं होती। धन को धन खींच लाता है, जैसे महागज गज को। धर्म, काम और स्वर्ग सब अर्थ से ही होते हैं। जो अश्वों से कृश, गौओं से कृश और अतिथियों से कृश है वही कृश है। शरीर से कृश कृश नहीं कहलाताः यः कृशाश्वः कृशगवः कृशभृत्यः कृशातिथिः। “धन को दूसरों के वश से अपने वश में लाये बिना काम नहीं चलता। वेदों में जितने आदेश हैं वे बिना धन के पूरे नहीं होते। अर्थात दान, तप, स्वाध्याय धन से ही सधते हैं। “आपके लिए अब द्रव्यमय यज्ञ करने का समय आया है। वह धन से ही संभव है। “यह पृथ्वी नृग, दिलीप, नहुष, अम्बरीष, मान्धाता के पास जैसे थी वैसे ही आपके पास आई है। इसके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन कीजिये। मेरी समझ से धन से धर्मपूर्वक राज्य करना ही श्लाघ्य है। जो राजा अश्वमेध से यजन करता है वह उसके अवभृथ स्नान से अपने को पवित्र बनाता है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12।8।24
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