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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
10 सौप्तिक
अध्याय : 1-8
इस पर्व के अंत में दो अध्याय युद्ध-वर्णन से थके हुए लेखक की दार्शनिक समीक्षा प्रकट करते हैं। उसने सोचा होगा कि प्रलंयकारी संहार कैसे हो गया। तब उसने इसका यही समाधान निश्चित किया कि भगवान की इच्छा के बिना इतनी बड़ी घटना नहीं घट सकती। वे देवी या देव जिस प्रकार प्रजा की रचना और पालन करते हैं उसी प्रकार उसका संहार भी उन्हीं की इच्छा से होता है। रचना करते समय उनका नाम ब्रह्मा, रक्षा करते समय विष्णु और नाश करते समय रुद्र है। यह समस्त विश्व भगवान रुद्र का एक लिंग या प्रतीक है और इसमें जैसी सृष्टि या स्थिति के अंश हैं, वैसे ही क्षय भी इसके साथ जुड़ा हुआ है। जीवन का विश्व एक महान यज्ञ है। देवताओं ने सोचा कि यज्ञ में और सबको तो भाग देंगे, शंकर को नहीं; पर ऐसा करने से वह यज्ञ सफल नहीं हो सका। संसार में पांच प्रकार के यज्ञ हैः पंचभूतमयो यज्ञो नृयज्ञश्चैव पञ्चमः।।[1] ये पांचों प्रकार के यज्ञ सनातन या सदा रहने वाले हैं। इनका भेद इस प्रकार जानना चाहिएः इन पांचों यज्ञों में शिव का अंश अवश्य है। जिस यज्ञ में शिव को भाग नहीं मिलता, उसका वे विध्वंस कर डालते हैं, अर्थात वह पहले से ही विनष्ट है। दक्ष यज्ञ के विध्वंस की कथा का अर्थ यही है। दक्ष ने अपनी सब पुत्रियों को न्यौता दिया, पर सबसे बड़ी जगन्माता सती को नहीं। उसने सब देवों को यज्ञ में भाग दिया, पर शिव को नहीं। इस कारण शिव के गणों ने विध्वंस कर डाला। यहाँ भी लिखा है कि देवों ने अपने यज्ञ में यज्ञ भाग के लिए सब देवताओं और द्रव्यों की कल्पना की, किन्तु रुद्र की नहीं। क्योंकि रुद्र के स्थाणु या अविनश्वर स्वरूप को नहीं जानते थे। इसलिए शिव ने या रुद्र ने एक धनुष का निर्माण किया और देवताओं को बींध डाला। सब देवताओं का तेज कुंठित हो गया। सब देवों ने शिव को प्रसन्न किया और उनका यज्ञ सकुशल हुआ। भगवान शंकर के कुपित होने पर सारा जगत डांवाडोल हो जाता है और उनके प्रसन्न होने पर पुनः स्थिर हो जाता है। महाभारत युद्ध के समय भगवान शिव लोगों का क्षय करने के लिए स्वयं काल बन गये थे और जब क्षय हो गया, तब वे शान्त हुए। इस प्रकार विश्व के नाश और पालन में महाकाल या ईश्वर की लीला ही प्रधान है। वस्तुतः जीवन के साथ मरण, यही भगवान का नियम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सौप्तिक पर्व 18। 5
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